Book Title: Jain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Author(s): Shreepalchandra Yati
Publisher: Pandurang Jawaji
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चतुर्थ अध्याय ।
विचार कर देखा जाये तो ये (फूट कर निकलनेवाले) ज्वर अधिक भयानक होते हैं अर्थात् इन की यदि ठीक रीति से चिकित्सा न की जावे तो ये शीघ्र ही प्राणघातक हो जाते हैं परन्तु बड़े अफसोस का विषय है कि लोग इन की भयंकरता को न समझ कर मनमानी चिकित्सा कर अन्त में प्राणों से हाथ धो वैठते हैं। ___ मारवाड़ देश की ओर जब दृष्टि उठा कर देखा जावे तो विदित होता है कि-वहां के अविद्या देवी के उपासकों ने इस ज्वर की चिकित्सा का अधिकार मूर्ख रण्डाओं (विधवाओं) को सौंप रक्खा है, जो कि (रंडायें) डाकिनी रूप हो कर इस की प्रायः पित्तविरोधी चिकित्सा करती हैं' अर्थात् इस ज्वर में अत्यन्त गर्म लौंग, सोंठ और ब्राह्मी दिलाती हैं, इस का परिणाम यह होता है कि-इस चिकित्सा के होने से सौ में से प्रायः नब्बे आदमी गर्मी के दिनों में मरते हैं, इस बात को हम ने वहां स्वयं देखा है और सौ में से दश आदमी भी जो बचते हैं वे भी किसी कारण से ही बचते हैं सो भी अत्यन्त कष्ट पाकर बचते हैं किन्तु उन के लिये भी परिणाम यह होता है कि वे जन्म भर अत्यन्त कष्टकारक उस गर्मी का भोग भोगते हैं, इस लिये इस बात पर मारवाड़ के निवासियों को अवश्य ही ध्यान देना चाहिये। __इन रोगों में यद्यपि मसूर के दानों के समान तथा मोती अथवा सरसों के दानों के समान शरीर पर फुनसियां निकलती हैं तथापि इन में मुख्यतया ज्वर का ही उपद्रव होता है इस लिये यहां हमने ज्वर के प्रकरण में इनका समावेश किया है। __ मेद (प्रकार)-फूट कर निकलनेवाले ज्वरों के बहुत से भेद (प्रकार) हैं, उन में से शीतला, ओरी और अचपड़ा (इस को मारवाड़ में आकड़ा काकड़ा कहते हैं ) आदि मुख्य हैं, इन के सिवाय-मोतीझरा, रंगीला, विसर्प, हैजा और प्लेग आदि सब भयंकर ज्वरों का भी समावेश इन्हीं में होता है।
कारण-नाना प्रकार के ज्वरों का कारण जितना शरीर के साथ सम्बन्ध रखता है उस की अपेक्षा बाहर की हवा से विशेष सम्बन्ध रखता है। __ ऐसे फूट कर निकलनेवाले रोग कहीं तो एकदम ही फूट कर निकलते हैं और कहीं कुछ विशेष विलम्ब से फूटते हैं, इन रोगों का मुख्य कारण एक प्रकार का ज़हर ( पॉइझन ) ही होता है और यह विशेष चेपी है इस लिये चारों ओर
१-ज्वर में पित्तविरोधी चिकित्सा का सर्वथा निषेध किया गया है अर्थात् ज्वर में पित्तविरोधी चिकित्सा कभी नहीं करनी चाहिये, क्योंकि ऐसा करने से अनेक दूसरे भी उपद्रव उठ खड़े होते हैं ॥ २-क्योंकि उक्त दवा की गर्मी रोगियों के हृदय में समा जाती है और जब ग्रीष्मऋतु की गर्मी पड़ती है तब उन के शरीर में द्विगुण गर्मी हो जाती है कि-जिस का सहन नहीं हो सकता है और आखिरकार मर ही जाते हैं ॥ ३-अर्थात् ज्वरों का कारण बाहरी हवा से विशेष प्रकट होता है ।। ४-तात्पर्य यह है कि जब रोग के कारण का पूरा असर शरीर पर हो जाता है तब ही रोग उत्पन्न हो जाता है ।। ५-अर्थात् स्पर्श से अथवा हवा के द्वारा उड़ कर लगनेवाला है।
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