Book Title: Jain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Author(s): Shreepalchandra Yati
Publisher: Pandurang Jawaji
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जैनसम्प्रदायशिक्षा। अलसक-इस रोग में माहार न तो नीचे उतरता है, न उपर को जाता है' और न परिपक्क ही होता है, किन्तु आलसी पुरुष के समान पेट में एक जगह ही पड़ा रहता है, इस के सिवाय इस रोग में अफरा, मल मूत्र और गुदा की पवन (अपानवायु) का रुकना तथा अति तृषा (प्यास का अधिक लगाना), इत्यादि लक्षण भी होते हैं, इस रोग में प्रायः मनुष्य को अतिकष्ट होता है।
विलम्बिका-इस रोग में किया हुआ भोजन कफ और वात से दूषित होकर न तो ऊपर को जाता है और न नीचे को ही जाता है अर्थात् न तो वमन के द्वारा निकलता है और न विरेचन (दस्त) ही के द्वारा निकलता है, इस रोग में अलसक रोग से यह भेद है कि-अलसक रोग में तो शूल आदि घोर पीड़ा होती है परन्तु इस में वैसी पीड़ा नहीं होती है । ___ जब विषूचिका और अलसक रोग में रोगी के दाँत नख और ओष्ठ (ओठ) काले हो जावें, अत्यन्त वमन हो, ज्ञान (संज्ञा) का नाश हो जावे, नेत्र भीतर घुस जावें, स्वर क्षीण हो जावे तथा सन्धियां शिथिल हो जावें तब इन लक्षणों के होने के बाद रोगी नहीं बचता है।
निद्रा का नाश, मन का न लगना, कम्प, मूत्र का रुकना और संज्ञा का नाश, ये पांच विषूचिका के घोर उपद्रव हैं।
पहिले कह चुके हैं कि-बहुधा भोजन की विषमता से मनुष्य के अजीर्ण रोग हो जाता है तथा वही अजीर्ण सब रोगों का कारण है, इस लिये जहांतक हो सके अजीर्ण को शीघ्र ही दूर करना चाहिये, क्योंकि अजीर्ण रोग का दूर करना मानो सब रोगों को दूर करना है।
अजीर्ण जाता रहा हो उस के लक्षण-शुद्ध डकार का आना, शरीर और मन का प्रसन्न होना, जैसा भोजन किया हो उसी के सदृश मल और मूत्र की अच्छे प्रकार से प्रवृत्ति होना, सब शरीर का हलका होना, उस में भी कोष्ठ (कोठे अर्थात् पेट) का विशेष हलका होना तथा भूख और प्यास का लगना, ये सब चिह्न अजीर्ण रोग के नष्ट होनेपर देखे जाते हैं, अर्थात् अजीर्ण रोग से रहित पुरुष के भोजन के पच जाने के बाद ये सब लक्षण देखे जाते हैं।
अजीर्ण की सामान्यचिकित्सा-१-आमाजीर्ण में गर्म पानी पीना १-अर्थात् न तो दस्त के द्वारा निकलता है और न वमन के द्वारा ही निकलता है ।। २-इसी लिये इस रोग को अलसक कहते हैं ॥ ३-परन्तु यह रोग भी दुश्चिकित्स्य ( कठिनता से चिकित्सा करने योग्य ) माना गया है ॥ ४-ज्ञान का नाश हो जावे अर्थात् होश जाता रहे। ५-स्वर क्षीण हो जावे अर्थात् आवाज बैठ जावे ।। ६-क्योंकि ऐसी दशा में यह रोग असाध्य हो जाता है ॥ ७-संशा का नाश अर्थात् बेहोशी ॥ ८-ये निद्रानाशादि उपद्रव तो प्रायः सब ही रोगों में भयंकर होते हैं परन्तु ये पांचों उपद्रव जब इस (विषूचिका) रोग में होते हैं तो रोगी कभी नहीं बचता है क्योंकि इन पांचों उपद्रवों सहित विचिकारोग असाध्य हो जाता है । ९-अर्थात् जीर्णाहार (पचे हुए आहार) के लक्षण ।
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