Book Title: Jain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Author(s): Shreepalchandra Yati
Publisher: Pandurang Jawaji
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चतुर्थ अध्याय ।
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पर वे सब को देते भी हैं, वास्तव में यह विद्यादेवी के उपासक होने की ही एक निशानी है। ___ अन्त में हमारा कथन केवल यही है कि-हमारे मरुस्थल देश के निवासी श्रीमान् लोग ऊपर लिखे हुए लेख को पढ़ कर तथा अपने हिताहित और कर्तव्यका विचार कर सन्मार्ग का अवलम्बन करें तो उन के लिये परम कल्याण हो सकता है, क्यों कि अपने कर्तव्य में प्रवृत्त होना ही परलोकसाधन का एक मुख्य सोपान (सीढ़ी) है।
. आगन्तुक ज्वर का वर्णन । कारण-शस्त्र और लकड़ी आदि की चोट तथा काम, भय और क्रोध आदि बाहर के कारण शरीरपर अपना असर कर ज्वर को उत्पन्न करते हैं, उसे आगन्तुक ज्वर कहते हैं, यद्यपि अयोग्य आहार और विहार से विगड़ी हुई वायु भी आमाशय (होजरी) में जाकर भीतर की अग्नि को बिगाड़ कर रस तथा खून में मिल कर ज्वर को उत्पन्न करती है परन्तु यह कारण सब प्रकार के ज्वरों का कारण नहीं हो सकता है-क्यों कि ज्वर दो प्रकार का है-शारीरिक और आगन्तुक, इन में से शारीरिक स्वतन्त्र (स्वाधीन) और आगन्तुक परतन्त्र (पराधीन ) है, इन में से शारीरिक ज्वर में ऊपर लिखा हुआ कारण हो सकता है, क्यों कि शारीरिक ज्वर वायु का कोप होकर ही उत्पन्न होता है, किन्तु आगन्तुक ज्वर में पहिले ज्वर चढ़ जाता है पीछे दोष का कोप होता है, जैसे-देखो ! काम शोक तथा डर से चढ़े हुए ज्वर में पित्त का कोप होता है और भूतादि के प्रतिबिम्ब के बुखार के आवेश होनेसे तीनों दोषोंका कोप होता है, इत्यादि।
भेद तथा लक्षण-१-विषजन्य (विषसे पैदा होनेवाला) आगन्तुक ज्वर-विष के खाने से चढ़े हुए ज्वर में रोगी का मुख काला पड़ जाता है, सुई के चुभाने के समान पीड़ा होती है, अन्न पर अरुचि, प्यास और मूर्छा होती है, स्थावर विषसे उत्पन्न हुए ज्वर में दस्त भी होते हैं, क्यों कि विष नीचे को गति करता है तथा मल आदि से युक्त वमन (उलटी) भी होती है।
१-क्योंकि उन के हृदय में दया और परोपकार आदि मानुषी गुण विद्यमान है॥ २-उन को स्मरण रखना चाहिये कि यह मनुष्य जन्म बड़ी कठिनता से प्राप्त होता है तथा वारंवार नहीं मिलता है, इस लिये पशुवत् व्यवहारों को छोड़ कर मानुषी वर्ताव को अपने हृदय में स्थान दें, विद्वानों और शानी महात्माओं की सङ्गति करें, कुछ शक्ति के अनुसार शास्त्रों का अभ्यास करें, लक्ष्मी और तज्जन्य विलास को अनित्य समझ कर द्रव्य को सन्मार्ग में खर्च कर परलोक के सुख का सम्पादन करे, क्योंकि इस मल से भरे हुए तथा अनित्य शरीर से निर्मल और शाश्वत (नित्य रहनेवाले ) परलोक के सुख का सम्पादन कर लेना ही मानुषी जन्म की कृतार्थता है॥ ३-आदिशब्द से भूत आदि का आवेश, अभिचार (घात और मूंठ आदि का चलाना), अभिशाप (ब्राह्मण, गुरु, वृद्ध और महात्मा आदि का शाप) विषभक्षण, अग्निदाह, तथा हट्टी आदि का टूटना, इत्यादि कारण भी समझ लेने चाहिये ॥ ४-यह स्वाधीन इस लिये हैं कि अपने ही किये हुए मिथ्या आहार और विहार से प्राप्त होता है ।
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