Book Title: Jain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Author(s): Shreepalchandra Yati
Publisher: Pandurang Jawaji
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जैनसम्प्रदायशिक्षा |
यह भी स्मरण रहे कि - इन लक्षणों में से थोड़े लक्षण कष्टसाध्य में और पूरे ( ऊपर कहे हुए सब ) लक्षण प्रायः असाध्य सन्निपात में होते हैं ।
विशेषवक्तव्य - सन्निपातज्वर में जब रोगी के दोषों का पाचन होता है अर्थात् मल पकते हैं तब ही आराम होता है अर्थात् रोगी होश में आता है, यह भी जान लेना चाहिये कि जब दोषों का वेग (जोर) कम होता है तब आराम होने की अवधि (मुदत ) सात दश वा बारह दिन की होती है, परन्तु यदि दोप अधिक, बलवान् हों तो आराम होने की अवधि चौदह, वीस वा चौबीस दिन की जाननी चाहिये यह भी स्मरण रखना चाहिये कि - सन्निपात ज्वर में बहुत ही सँभाल रखनी चाहिये, किसी तरह की गड़बड नहीं करनी चाहिये अर्थात् अपने मनमाना तथा मूर्ख वैद्य से रोगी का कभी इलाज नहीं करवाना चाहिये, किन्तु बहुत ही धैर्य ( धीरज ) के साथ चतुर वैद्य से परीक्षा करा के उस के कहने के अनुसार रस आदि दवा देनी चाहिये, क्योंकि सन्निपात में रस आदि दवा ही प्रायः विशेष लाभ पहुँचाती है, हां चतुर वैद्य की सम्मति से दिये हुए काष्टादि ओपधियों के काढ़े आदि से भी फायदा होता है, परन्तु पूरे तौर से तो फायदा इस रोग में रसादि दवा से ही होता है और उन रसों की दवा में भी शीघ्र ही फायदा पहुँचानेवाले ये रस मुख्य हैं - हेमगर्भ, अमृतसञ्जीवनी, मकरध्वज, पड्गुणगन्धक और चन्द्रोदय, आदि, ये सब प्रधानरस पान के रस के साथ, आर्द्रक ( अदरख ) के रस में, सोंठ के साथ, लौंग के साथ तथा तुलसी के पत्तों के रस के साथ देने चाहिये, परन्तु यदि रोगी की ज़वान बन्द हो तो सहजने की छाल के रस के साथ इन में से किसी रस को ज़रा गर्म कर के देना चाहिये, अथवा असली अम्वर वा कस्तूरी के साथ देना चाहिये ।
यदि ऊपर कहे हुए रसों में से कोई भी रस विद्यमान ( मौजूद ) न हो तो साधारण रस ही इस रोग में देने चाहियें जैसे- ब्राह्मी गुटिका, मोहरा गुटिका, त्रिपुरभैरव, आनन्दभैरव और अमरसुन्दरी आदि, क्योंकि ये रस भी सामान्य ( साधारण ) दोष में काम दे सकते हैं ।
इनके सिवाय तीक्ष्ण ( तेज़) नस्य का देना तथा तीक्ष्ण अञ्जन का आखों में डालना आदि क्रिया भी विद्वान् वैद्य के कथनानुसार करनी चाहिये ।
उग्र ( बड़े वा तेज़ ) सन्निपात में एक महीनेतक खूब होशियारी के साथ पथ्य तथा दवा का वर्ताव करना चाहिये तथा यह भी स्मरण रखना चाहिये कि सोलह सेर जल का उवालने से जब एक सेर जल रह रोगी को देना चाहिये, क्योंकि यह जल दस्त, वमन सन्निपात में परम हितकारक है अर्थात् यह सौ मात्रा की एक मात्रा है ।
जाये
तब उस जल को
(उलटी ), पास तथा
इस के सिवाय जब तक रोगी का मल शुद्ध न हो. होश न आवे तथा सब इन्द्रियां निर्मल न हो जावें तब तक और
कुछ खाने पीने को नहीं देना
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