Book Title: Jain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Author(s): Shreepalchandra Yati
Publisher: Pandurang Jawaji
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चतुर्थ अध्याय । दरी तथा शिथिल (लठर ) हो जाती है, पित्त और रुधिर से मिला हुआ कफ थूक में आता है, रोगी शिर को इधर उधर पटकता है, तृषा बहुत लगती है, निद्रा का नाश होता है, हृदय में पीड़ा होती है, पसीना, मूत्र और मल, ये बहुत काल में थोड़े २ उतरते हैं, दोषों के पूर्ण होने से रोगी का देह कृश (दुबला) नहीं होता है, कण्ठ में कफ निरन्तर (लगातार) बोलता है, रुधिर से काले और लाल कोठ (टांटिये अर्थात् बरं के काठने से उत्पन्न हुए दाफड़ अर्थात् ददोड़े के समान) और चकत्ते होते हैं. शब्द बहुत मन्द (धीमा) निकलता है, कान, नाक और मुख आदि छिद्रों में पाक (पकना) होता है, पेट भारी रहता है तथा वात, पित्त और कफ, इन दोषों का देर में पाक होता है।
इन लक्षणों के सिवाय वाग्भट्टने ये भी लक्षण कहे हैं कि इस ज्वर में शीत लगता है, दिन में घोर निद्रा आती है, रात्रिमें नित्य जागता है, अथवा निद्रा कभी नहीं आती है, पसीना बहुत आता है, अथवा आता ही नहीं है, रोगी कभी गान करता है (गाता है), कभी नाचता है, कभी हँसता और रोता है तथा उस की चेष्टा पलट (बदल) जाती है, इत्यादि ।
१-(प्रश्न) वात आदि तीन दोष परस्पर विरुद्ध गुणवाले हैं वे सब मिल कर एक ही कार्य सन्निपात को कैसे करते हैं, क्योंकि प्रत्येक दोष परस्पर ( एक दूसरे) के कार्य का नाशक है, जैसे कि-अग्नि और जल परस्पर मिलकर समान कार्य को नहिं कर सकते हैं (क्योंकि परस्पर विरुद्ध हैं) इसी प्रकार वात, पित्त और कफ, ये तीनों दोष भी परस्पर विरुद्ध होने से एक विकार को उत्पन्न नहीं कर सकते हैं ? ( उत्तर ) वात, पित्त और कफ, ये तीनों दोष साथ ही में प्रकट हुए हैं तथा तीनों बराबर है, इस लिये गुणों में परस्पर (एक दूसरे से) विरुद्ध होने पर भी अपने २ गुणों से दूसरे का नाश नहीं कर सकते हैं, जैसे कि-साँप अपने विष से एक दूसरे को नहीं मार सकते है, यही समाधान ( जो हमने लिखा है) दृढ़बल आचार्य ने किया है, परन्तु इस प्रश्न का उत्तर गदाधर आचार्य ने दूसरे हेतु का आश्रय लेकर दिया है, वह यह है कि-विरुद्ध गुणवाले भी वात आदि दोष सन्निपातावस्था में देवेच्छा से ( पूर्व जन्म के किये हुए प्राणियों के शुभाशुभ कर्मों के प्रभावसे) अथवा अपने स्वभाव से ही इकठे रहते हैं तथा एक दूसरे का विघात नहीं करते हैं । (प्रश्न) अस्तु-इस बात को तो हम ने मान लिया कि-सन्निपातावस्था में विरुद्ध गुणवाले हो कर भी तीनों दोष एक दूसरे का विधात नहीं करते हैं परन्तु यह प्रश्न फिर भी होता है कि वात आदि तीनों दोषों के सञ्चय और प्रकोप का काल पृथक् २ है इस लिये वे सब ही एक काल में न तो प्रकट ही हो सकते हैं (क्योंकि सञ्चय का काल पृथक २ है) और न प्रकपित ही हो सकते हैं क्योंकि जब तीनों का सञ्जय ही नहीं है फिर प्रकोप कहाँ से हो सकता है ) तो ऐसी दशा में सन्निपात रूप कार्य कैसा हो सकता है ? क्योंकि कार्य का होना कारण के आधीन है । ( उत्तर ) तुम्हारा यह प्रश्न ठीक नहीं है क्योंकि शरीर में वात आदि दोष स्वभाव से ही विद्यमान हैं, वे ( तीनों दोष ) अपने (त्रिदोष) को प्रकट करनेवाले निदान के बल से एक साथ ही प्रकुपित हो जाते है अर्थात् त्रिदोषक" मिथ्या आहार और मिथ्या विहार से तीनों ही दोष एक ही काल में कुपित हो जाते हैं और कुपित हो कर सन्निपातरूप कार्य को उत्पन्न कर देते हैं।
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