Book Title: Jain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Author(s): Shreepalchandra Yati
Publisher: Pandurang Jawaji
View full book text
________________
४५८
जैनसम्प्रदायशिक्षा।
लक्षणं-अन्न पर अरुचि का होना, यह कफज्वर का मुख्य लक्षण है, इस के सिवाय अंगों में भीगापन, ज्वर का मन्द वेगे, मुख का मीठा होना, आलस्य, तृप्ति का मालूम होना, शीत का लगना, देह का भारी होना, नींद का अधिक आना, रोमाञ्च का होना, श्लेष्म (कफ) का गिरना, वमन, उवाकी, मल, मूत्र, नेत्र, त्वचा और नख का श्वेत (सफेद) होना, श्वास, खांसी, गर्मी का प्रिय लगना और मन्दाग्नि, इत्यादि दूसरे भी चिह्न इस ज्वर में होते हैं, यह कफज्वर प्रायः कफप्रकृतिवाले पुरुष के तथा कफ के कोप की ऋतु ( वसन्त ऋतु) में उत्पन्न होता है।
चिकित्सा-१-कफज्वरवाले रोगी को लंघन विशेप सह्य होता है तथा योग्य लंघन से दूषित हुए दोप का पाचन भी होता है, इसलिये रोगी को जब तक अच्छे प्रकार से भूख न लगे तब तक नहीं खाना चाहिये, अथवा मूंग की दाल का ओसामण पीना चाहिये। २-गिलोय का काढ़ा, फांट अथवा हिम शहद डाल कर पीना चाहिये।
३-छोटी पीपल, हरड़, बहेड़ा और आंवला, इन सब को समभाग (बराबर)लेकर तथा चूर्ण कर उस में से तीन मासे चूर्ण को शहद के साथ चाटना चाहिये, इस से कफज्वर तथा उस के साथ में उत्पन्न हुए खांसी श्वास और कफ दूर हो जाते हैं।
४-इस ज्वर में अडूसे का पत्ता, भूरीगणी तथा गिलोय काढ़ा शहद डाल कर पीने से फायदा करता है।
द्विदोषज (दो २ दोषोंवाले) ज्वरों का वर्णन । पहिले कह चुके है कि-दो २ दोपवाले ज्वरों के तीन भेद हैं अर्थात् वातपि. त्तज्वर, वातकफज्वर और पित्तकफज्वर इन दो २ दोषवाले ज्वरों में दो २ दोपों के लक्षण मिले हुए होते हैं, जिन की पहिचान सूक्ष्म दृष्टि वाले तथा वैद्यक विद्या
१-चौपाई-मन्द वेग मुख गीठो रहई ॥ आलस तृप्ति शीत तन गहई ॥१॥
भारी तन अति निद्रा होवै ॥ रोम उठे पीनस रुचि खोवै ।। २ ।। शुक्ल मूत्र नख विष्ठा जासू ॥ श्वेत नेत्र त्वच खांसी श्वासू ॥ ३ ॥
वमन उबाकी उष्ण मन चहहीं ॥ एते लक्षण कफज्वर अहहीं ॥ ४ ॥ २-कफ शीतल है तथा मन्द गतिवाला है इस लिये ज्वर का भी बेग मन्द ही होता है ॥ ३कफ का स्वभाव तृप्तिकारक (तृप्ति का करनेवाला) है इस लिये कफज्वरी लंघन का विशेष महन कर सकता है, दूसरे-कफ के विकृत तथा कुपित होने से जठराग्नि अत्यन्त शान्त हो जाती है, इस लिये भूख पर रुचि के न होने से भी उस को लंघन सह्य होता है ॥ ४-पहिले कह ही चुके हैं कि लंघन करने से जठराग्नि दोष का पाचन करती है ॥ ५-भूरीगणी को रेंगनी तथा कण्टकारी (कटेरी) भी कहते हैं, प्रयोग में इस की जड़ ली जाती है, परन्तु जड़ न मिलने पर पञ्चाङ्ग (पांचों अंग अर्थात् जड़, पत्ते, फल और शाखा) भी काम में आता है, इस की साधारण मात्रा एक मासे की है ॥ ६-अर्थात् दोनों ही दोषों के लक्षण पाये जाते हैं, जैसे-वातपित्तज्वर में-वातज्वर के तथा पित्तज्वर के (दोनों के) मिश्रित लक्षण होते हैं, इसी प्रकार वातकफवर तथा पित्तकफज्वर के विषय में भी जान लेना चाहिये।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com