Book Title: Jain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Author(s): Shreepalchandra Yati
Publisher: Pandurang Jawaji
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जैनसम्प्रदायशिक्षा। भीगे, सफेद, नरम, मन्द, निस्तेज, तन्द्रायुक्त, कृष्ण और जड़ होते हैं, त्रिदोष (सन्निपात) के नेत्र भयंकर, लाल, कुछ काले और मिचे हुए होते हैं।
आकृतिपरीक्षा-आकृति (चेहरा) के देखने से भी बहुत से रोगों की परीक्षा हो सकती है, प्रातःकाल में रोगी की आकृति तेजरहित विचित्र और झांकने से काली दीखती हो तो वादी का रोग समझना चाहिये, यदि आकृति पीली मन्द और शोथयुक्त दीखे तो पित्त का रोग समझना चाहिये, यदि आकृति मन्द और तेलिया (तेल के समान चिकनी ) दीखे तो कफ का रोग समझना चाहिये, स्वाभाविक नीरोगता की आकृति शान्त स्थिर और सुखयुक्त होती है, परन्तु जब रोग होता है तब रोग से आकृति फिर (बदल) जाती है तथा उस का स्वरूप तरह २ का दीखता है, रात दिन के अभ्यासी वैद्य आकृति को देख कर ही रोग को पहिचान सकते हैं, परन्तु प्रत्येक वैद्य को इस (आकृति) के द्वारा रोग की पहिचान नहीं हो सकती है।
आकृति की व्यवस्था का वर्णन संक्षेप से इसप्रकार है:१-चिन्तायुक्त आकृति-सख्त बुखार में, बड़े भयंकर रोगों की प्रारम्भ
दशा में, हिचकी तथा खैचातान के रोगों में, दम तथा श्वास के रोग में, कलेजे और फेफसे के रोग में, इत्यादि कई एक रोगों में आकृति चिन्ता.
युक्त अथवा चिन्तातुर रहती है। . २-फीकी आकृति-बहुत खून के जाने से, जीर्ण ज्वर से, तिल्ली की बीमारी
से, बहुत निर्बलता से, बहुत चिन्ता से, भय से तथा भर्त्सना से, इत्यादि कई कारणों से खून के भीतरी लाल रजःकणों के कम हो जाने से आकृति फीकी हो जाती है, इसी प्रकार ऋतुधर्म में जब स्त्री का अधिक खून जाता है अथवा जन्म से ही जो शक्तिहीन बांधेवाली स्त्री होती है उस का बालक बारंबार दूध पीकर उस के खून को कम कर देता है और उस को पुष्टिकारक भोजन पूर्णतया नहीं मिलता है तो स्त्रियों की भी आकृति फीकी हो
जाती है। ३-लाल आकृति-सख्त बुखार में, मगज़ के शोथ में तथा लू लगने पर लाल आकृति हो जाती है, अर्थात् आंखें खून के समान लाल हो जाती हैं और गालों पर गुलाबी रंग मालूम होता है तथा गाल उपसे हुए मालूम
१-जड अर्थात् क्रियारहित ॥ २-इसी विषय का वर्णन किसी विद्वान् ने दोहों में किया हैं, जो कि इस प्रकार हैं-वातनेत्र रूखे रहें, धूम्रज रंग विकार ॥ झमकें नहि चञ्चल खुले, काले रंग विकार ।। १ ॥ पित्तनेत्र पीले रहें, नीले लाल तपेह । तप्त धूप नहिं दृष्टि दिक, लक्षण ताके येह ॥ २॥ क फज नेत्र ज्योतीरहित, चिट्टे जलभर ताहि ॥ भारे वहुता हि प्रभा, मन्द दृष्टि दरसाहि ॥ ३॥ काले खुले जु मोह सों, व्याकुल अरु विकराल ॥ रूखे कबहूँ लाल हों, त्रैदोपज समभाल ॥ ४ ॥ तीन तीन दोपहि जहाँ, त्रैदोषज सो मान ॥ दो दो दोष लखे जहाँ, द्वन्दज तहाँ पिछान ॥५॥ इन दोहों का अर्थ सरल ही है इस लिये नहीं लिखते है।
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