Book Title: Jain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Author(s): Shreepalchandra Yati
Publisher: Pandurang Jawaji
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चतुर्थ अध्याय ।
के लिये पाठकगण जान सकते हैं कि-शिर का दुखना एक साधारण रोग है परन्तु उस के कारण बहुत से हैं, जैसे-शिर में गर्मी का होना, दस्त की कब्जी, धातु का जाना और प्रदर आदि कई कारणों से शिर दुखा करता है, अब शिर दुखने के कारण का ठीक निश्चय न करके यदि दूसरा इलाज किया जावे तो कैसे आराम हो सकता है ? फिर शिर दुखने के कारणों को तलास करने में यद्यपि नाड़ीपरीक्षा भी कुछ सहायता देती है परन्तु यदि किसी प्रकार से रोग के कारण का पूर्ण अनुभव हो जावे तो शेष किसी परीक्षा से कोई काम नहीं है और रोग के कारण का अनुभव होने में केवल रोगी से सब हालका पूछना प्रधान साधन है, जैसे देखो ! शिर के दर्द में यदि रोगी से पूछ कर कारण का निश्चय कर लिया जावे कि तेरा शिर किस तरह से और कब से दुखता है इत्यादि, इस प्रकार कारण का निश्चय हो जाने पर इलाज करने से शीघ्र ही आराम हो सकता है, परन्तु कारण का निश्चय किये विना चिकित्सा करने से कुछ भी लाभ नहीं हो सकता है, जैसे देखो ! यदि ऊपर लिखे कारणों में से किसी कारण से शिर दुखता हो और उस कारण को न समझ कर अमोनिया सुंघाया जावे तो उस से बिलकुल फायदा नहीं हो सकता है, फिर देखो ! दाँत के तथा कान के रोग से भी शिर अत्यन्त दुखने लगता है, इस बात को भी विरले ही लोग समझते हैं, इसी प्रकार कान के बहने से भी शिर दुखता है, इस बात को रोगी तो स्वम में भी नहीं जान सकता है, हां यदि वैद्य कान के दुखने की बात को पूछे अथवा रोगी अपने आप ही वैद्य को अव्वल से आखीर तक अपनी सब हकीकत सुनाते समय कान के बहने की बात को भी कह देवे तो कारण का ज्ञान हो सकता है। __बहुत से अज्ञान लोग वैद्य की आबरू (प्रतिष्ठा) और परीक्षा लेने के लिये हाथ लम्बा करते हैं और कहते हैं कि-"आप देखो ! नाड़ी में क्या रोग है ?" परन्तु ऐसा कभी भूल कर भी नहीं करना चाहिये, किन्तु आप को ही अपनी सब हकीकत साफ २ कह देनी चाहिये, क्योंकि केवल नाड़ी के द्वारा ही रोग का निश्चय कभी नहीं हो सकता है, किन्तु रोग के निश्चय के लिये अनेक परीक्षाओं की आवश्यकता होती है, इसी प्रकार वैद्य को भी चाहिये कि केवल नाड़ी के देखनेका आडम्बर रचकर रोगी को भ्रम में न डाले और न उसे डरावे किन्तु उस से धीरज से पूछ २ कर रोग की असली पहिचान करे, यदि रोग की ठीक परीक्षा कराने के लिये कोई नया वा अज्ञान (अजान ) रोगी आ जाये तो उस को थोड़ी देर तक बैठने देना चाहिये, जब वह स्वस्थ (तहेदिल) हो
१-बहुत से धूर्त वैद्य अपना महत्त्व दिखलाने के लिये रोगी का हाल आदि कुछ भी न पूछकर केवल नाड़ी ही देखते हैं (मानो सर्वसाधारण को वे यह प्रकट करना चाहते है कि हम केवल नाड़ी देखकर ही रोग की सर्व व्यवस्था को जान सकते हैं ) तथा नाड़ी देखकर अनेक झूठी सच्ची बातें बना कर अपना प्रयोजन सिद्ध करने के लिये रोगी को बहका दिया करते है, परन्तु सुयोग्य और विद्वान् वैद्य ऐसा कभी नहीं करते हैं ॥
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