Book Title: Jain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Author(s): Shreepalchandra Yati
Publisher: Pandurang Jawaji
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जैनसम्प्रदायशिक्षा । व्यवहार नय से रोगी नहीं होता है, और तक्र से दग्ध हुए (जले हुए वा नष्ट हुए) रोग फिर कभी नहीं होते हैं, जैसे स्वर्ग के देवताओं को अमृत सुख देता है उसी प्रकार मृत्युलोक में मनुष्यों के लिये तक अमृत के समान सुखदाय के है।
तक में जितने गुण होते हैं वे सब उस के आधार रूप दही में से ही आते हैं अर्थात् जिस जिस प्रकार के दही में जो जो गुण कहे हैं उस उस प्रकार के दही से उत्पन्न हुए तक में भी वे ही गुण समझने चाहियें।।
तसेवनविधि-वायु की प्रकृतिवाले को तथा वायु के रोगी को खई छाछ में सेंधानमक डाल कर पीने से लाभ होता है, पित्त की प्रकृतिवाले को तथ पित्त के रोगी को मिश्री डाल कर मीठी छाछ के पीने से लाभ होता है, तथा कर; की प्रकृतिवाले को और कफ के रोगी को सञ्चल नमक, सोंठ, मिर्च और पीपर का चूर्ण मिला कर छाछ के पीने से बहुत लाभ होता है।
शीतकाल, अग्निमान्द्य (अग्नि की मन्दता), कफसम्बन्धी रोग, मलमूत्र का साफ न उतरना, जठराग्नि के विकार, उदररोग, गुल्म और हरस, इन रंगों में छाछ बहुत ही लाभदायक है।
अकेली छाछ का ही ऐसा प्रयोग है कि-उस से असाध्य संग्रहणी तथा हरस जैसे भयंकर रोग भी अच्छे हो जाते हैं, परन्तु पूर्ण विद्वान् वैद्य की सम्मति से इन रोगों में छाछ लेने की युक्ति को समझ कर उस का उपयोग करना चाहिये, क्योंकि अम्लपित्त और संग्रहणी ये दोनों रोग प्रायः समान ही मालम पड़ते है , तथा इन दोनों को अलग अलग पहिचान लेना मूर्ख वैद्य को तो क्या किन्तु स धारण शास्त्रज्ञानवाले वैध को भी कठिन पड़ता है, तात्पर्य यह है कि इन दोनों की ठीक तौर से परीक्षा तो पूर्ण वैद्य ही कर सकता है, इस लिये पूर्ण वैद्य के द्वारा रोग की
१-यथा च श्लोकः-'न तक्रसेवी व्यथते कदाचित्, न तकदग्धाः प्रभवन्ति रोगाः । यथा मुराणाममृतं सुखाय, तथा नराणां भुवि तक्रमाहुः ॥ १ ॥' इस का अर्थ ऊपर लिखे अनुसार ही है।। २-यदि दही खराब हो तो उस का तक भी औगुणकारी होता है ॥ ३-प्रिय पाठकग ग ! वैद्य की पूरी बुद्धिमत्ता रोग की पूरी परीक्षा कर लेने में ही जानी जाती है, परन्तु वर्तमान समय में उदरार्थी अपटित तथा अर्धदग्ध मूर्ख वैद्य बहुत मे देखे जाते हैं, ये लोग रोग की परीक्षा कमी नहीं कर सकते हैं, ऐसे लोग तो प्रतिदिन के अभ्यास से वेवल दो चार ही रोगों को तथा उन की ओषधि को जाना करते हैं, इसलिये समान लक्षणवाले अथवा कठिन रोगों का अवसर आ पड़ने पर इन लोगों से अनर्थ के सिवाय और कुछ भी नहीं बन पड़ता है, देखो ! ऊपर लिखे अनुसार अन्तपित्त और संग्रहणी प्रायः समान लक्षणवाले रोग हैं, अब विचारिये कि-संग्रहणी के लिये तो छाछ अद्वितीय ओषधि है और अम्लपित्त पर वह घोर विष के तुल्य है, यदि लक्षणों का ठीक निश्चय न कर अम्लपित्त पर छाछ देदी जावे तो रोगी की क्या दशा होगी, इसी प्रकार से समान लक्षणवाले बहुत से रोग हैं जिनका वर्णन ग्रन्थ के विस्तार के भय से नहीं करना चाहते है और न उन के वर्णन का यहां प्रसंग ही है, केवल छाछ के प्रसंग से यह एक उदाहरण पाठकों को बल लाया है, इस लिये प्रत्येक मनुष्य को उचित है कि-प्रथम योग्य उपायों से वैद्य की पूरी परीक्षा करके फिर उससे रोग की परीक्षा करावे ॥
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