Book Title: Jain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Author(s): Shreepalchandra Yati
Publisher: Pandurang Jawaji
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चतुर्थ अध्याय ।
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२-निज कुटुम्ब में विवाह-यह भी निर्बलता का एक मुख्य हेतु है, इस लिये वैद्यकशास्त्र आदि में इस का निषेध किया है, न केवल वैद्यकशास्त्र आदि में ही इस का निषेध किया है किन्तु इस के निषेध के लौकिक कारण भी बहुत से हैं परन्तु उन का वर्णन ग्रन्थ के बढ़ जाने के भय से वहांपर नहीं करना चाहते हैं। हां इन में से दो तीन कारणों को तो अवश्य ही दिखलाना चाहते हैं-देखिये:
5-संस्कृत भाषा में बेटीका नाम दुहिता रक्खा है और उस का अर्थ ऐसा होता है कि-जिस के दूर व्याहे जाने से सब का हित होता है।
-प्राचीन इतिहासों से यह बात अच्छे प्रकार से प्रकट है और इतिहासवेत्ता इस बात को भलीभाँति से जानते भी हैं कि इस आर्यावर्त देश में पूर्व समय में पुत्री के विवाह के लिये स्वयंवर मण्डप की जाती थी अर्थात् स्वयंवर की रीति से विवाह किया जाता था और उस के वास्तविक तत्त्वपर विचार कर देखने से यह बात मालूम होती है कि वास्तव में उक्त रीति अति उत्तम थी, क्योंकि उस में कन्या अपने गुण कर्म और स्वभावादि के अनुकूल अपने योग्य बर का वरण (स्वीकार) कर लेती थी कि जिस से आजन्म वे (स्त्री पुरुष) अपनी जीवनयात्रा को मानन्द व्यतीत करते थे, क्योंकि सब ही जानते और मानते हैं कि स्त्री पुरुष का समान स्वभावादि ही गृहस्थाश्रम के सुख का वास्तविक (असली) कारण है।
:-उपर कही हुई रीति के अतिरिक्त उस से उतर कर (गट कर) दूसरी रीति यह थी कि वर और कन्या के माता पिता आदि गुरुजन वर और कन्या की
१. देखो ! इसी लिये युगादि भगवान् श्रीपभदेव ने प्रजा को बलवती करने के लिये युगला धर्म को दूर किया था अर्थात् पूर्व समय में युगल जोड़ों से मैथुन होता था इस लिये उस समय में न तो प्रना की वृद्धि ही थी और न वे कोई पुरुषार्थ का काम ही कर सकते थे, किन्तु वे तो केवर पूवबद्ध पुण्य का फल कल्पवृक्षों से भोगते थे, उस समय कल्पवृक्ष का नाश होता हुआ देख कर भुने पुरुषार्थ बढ़ाने के लिये दूसरों २ की सन्तति से विवाह करने की आज्ञा दी, तब सब लोग एक के साथ जन्मे हुए जोड़े का दूसरे के साथ जन्मे हुए जोड़े से विवाह करने लगे, बड़ी मनु में भी ऐसी ही आशा है परन्तु भृगुऋषि की बनाई हुई छोटी मनु में ऐसा लिखा है कि-जो माता के सपिण्ड में न हो और पिता के गोत्र में न हो ऐसी कन्या के साथ उत्तम जातिवाले पुरुष को विवाह करना चाहिये इत्यादि, परन्तु वास्तव में तो बड़ी मनु का जो नियम है वह अर्हन्नति के अनुकूल होने से माननीय है ॥२ जैसा कि निरुक्त ग्रन्थ में 'दुहिता' शब्द का व्याख्यान है कि-"दूरे हिता दुहिता" इस का भाषार्थ ऊपर लिखे अनुसार ही है, विचार कर देखा जावे तो एक ही नगर में वसनेवाली कन्या से विवाह होने की अपेक्षा दूर देश में वसनेवाली कन्या से विवाह होना सवोत्तम भी प्रतीत होता है, परन्तु खेद का विषय है कि-बीकानेर आदि कई एक नगरों में अपने ही नगर में विवाह करने की गति प्रचलित हो गई है तथा उक्त नगरों में यह भी प्रथा है कि स्त्री दिनभर तो अपने पितृगृह (पीहर) में रहती है और रात को अपने वसुर गृह (सासरें) में रहती है और यह प्रथा खासकर वहां के निवासी उत्तम वर्गों में अधिक है, परन्तु यह महानिकृष्ट प्रथा है, क्योंकि इस से गृहस्थाश्रम को बहुत हानि पहुँचती है, इस बुरी प्रथा रे उक्त नगरों को जो २ हानियाँ पहुँच चुकी हैं और पहुँच रहीं हैं उन का विशेष वर्णन लेखके बढ़ने के भय से यहां नहीं करना चाहते हैं, बुद्धिमान् पुरुष स्वयं ही उन हानियों को सोचलेंगे।
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