Book Title: Jain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Author(s): Shreepalchandra Yati
Publisher: Pandurang Jawaji
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१४-क्रोष्टशीर्षक-इस रोग में गोड़ों में वादी खून को पकड़ कर कठिन सूजन को पैदा करती है।
१५-मन्यास्तम्भ- इस रोग में गर्दन की नसों में वायु कफ को पकड़ कर गर्दन को जकड़ देती है।
१६-प१-इस रोग में कमर तथा जांघों में वादी घुस कर दोनों पैरों को निकम्मा कर देती है।
१७-कलायखञ्ज-इस रोग में चलते समय शरीर में कम्पन होता है तथा पैर टेढ़े पड़ जाते हैं।
१८-तूनी--इस रोग में पक्वाशय में चिनग पैदा होकर गुदा और उपस्थ (पेशाव की इन्द्रिय ) में जाती है।
११-प्रतितूंनी–इस रोग में तूनी की पीड़ा नीचे को उतर कर पीछे नाभि की तरफ जाती है।
२०-खा-इस रोग में पंगु (पांगले) के समान सब लक्षण होते हैं, परन्तु विशेषता केवल यही है कि-यह रोग केवल एक पैर में होता है, इस लिये इस रोगवाले को लँगड़ा कहते हैं ।
२५-पादहर्ष-इस रोग में पैर में केवल झनझनाहट होती है तथा पैर शून्य जैसा हो जाता है। .
२२-गृध्रसी-इस रोग में कटि (कमर) के नीचे का भाग (जांघ) और पैर आदि) जकड़ जाता है।
२३-विश्वाची-इस रोग में हथेली तथा अंगुलियां जकड़ जाती हैं और हाथ से काम नहीं होता है। . २४-अपबाहुक-इस रोग में हाथों की नाड़ी जकड़ कर हाथ दूखते ( दर्द करते ) रहते हैं।
२:-अपतानक-इस रोग में वादी हृदय में जाकर दृष्टि को स्तब्ध ( रुकी हुई) करती है, ज्ञान और संज्ञा (चेतनता) का नाश करती है और कण्ठ से एक विलक्षण ( अजीब ) तरह की आवाज निकलती है, जब यह वायु हृदय से अलग हटती है तब रोगी को संज्ञा प्राप्त होती है (होश आता है), इस रोग में हिष्टीरिया (उन्माद) के समान चिह्न वार २ होते तथा मिट जाते हैं।
२६-व्रणायाम-इस रोग में चोट अथवा जखम से उत्पन्न हुए व्रण (घाव) में वादी दर्द करती है।
२७-व्यथा-इस रोग में पैरों में तथा घुटनों में चलते समय दर्द होता है।
१-यह सूजन शृगाल के शिरके समान होती है, इसी लिये इस को क्रोष्टशीर्षक (शृगाल का शिर) कहते हैं ॥ २-इस को कोई २ शास्त्रकार प्रतूनी भी कहते हैं ।
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