Book Title: Jain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Author(s): Shreepalchandra Yati
Publisher: Pandurang Jawaji
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चतुर्थ अध्याय ।
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-अतिजृम्भा - इस रोग में वादीसे उवासी अर्थात् जँभाई बहुत आती हैं। ४८ - प्रत्युद्गार - इस रोग में वादी के कोप से डकारें बहुत आती हैं ।
४९ - अन्नकूजन - इस रोग में वादी के कोप से आँतों में कूजन ( कुर २ की आवाज़ ) वार २ होती है ।
५० - वातप्रवृत्ति - इस रोग में वादी के जोर से अधोवायु (अपानवायु ) बहुत निकलती है ।
५१ - स्फुरण - इस रोग में वादी के जोर से आँख अथवा हाथ आदि कोई अंग फरकता है ।
और शिरायें भर जाती हैं ।
५२ - शिरापूर्ण - इस रोग में वादी से सब नसें ५३ - कम्पवायु -- इस रोग में वायु से सब अंग ५४ - कार्य - इस रोग में वादी के कोप से शरीर प्रतिदिन ( दिन पर दिन ) दुर्बल होता जाता है।
अथवा शिर काँपा करता है ।
५५ - श्यामता - इस रोग में वादी से शरीर काला पड़ता जाता है ।
५६ - प्रलाप – इस रोग में वादी से मनुष्य बहुत बकता और बोलता रहता है ।
५७ - क्षिप्रमूत्रता - इस रोग में बादी से दम २ में ( थोड़ी २ देर में ) पेशाव उतरा करती है ।
५८ - निद्रानाश - इस रोग में वादी से नींद नहीं आती है ।
५९ - स्वेदनाश – इस रोग में वादी पसीने के छिद्रों (छेदों) को बन्द कर पसीने को बन्द कर देती है ।
६० - दुर्बलत्व – इस रोग में वायु के कोप से शरीर की शक्ति जाती. रहती है ।
६१ - बलक्षय - इस रोग में वादी के कोप से शक्ति का बिलकुल ही नाश हो जाता है ।
६२ - शुक्रप्रवृत्ति - इस रोग में वादी के कोप से शुक्र (वीर्य) बहुत गिरा करता है ।
६३ - शुक्रका - इस रोग में वायु धातु में मिलकर धातु को सुखा देती है ६४ - शुक्रनाश - इस रोग में वायु से धातु का बिलकुल ही नाश हो जाता है ६५ - अनवस्थितचित्तता - इस रोग में वायु मगज़ में जाकर चित्त को अस्थिर कर देती है ।
६६ - काठिन्य - इस रोग में वायु के कोप से शरीर करड़ा हो जाता है ।
६७ - विरसास्यता - इस रोग में वायु के कोप से मुँह में रस का स्वाद बिलकुल नहीं रहता है ।
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