Book Title: Jain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Author(s): Shreepalchandra Yati
Publisher: Pandurang Jawaji
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जैनसम्प्रदायशिक्षा |
दोष प्रधान होता है उसी दोष के नाम से उसकी प्रकृति पहचानी और मानी जाती है, यह भी स्मरण रहे कि प्रकृति प्रायः मनुष्यों की पृथक् २ होती है, देखो ! यह प्रत्यक्ष ही देखा जाता है कि एक वस्तु एक प्रकृतिवाले को जो अनुकूल आती है वह दूसरे को अनुकूल नहीं आती है, इस का मुख्य हेतु यही है कि - प्रकृति में भेद होता है, इस उदाहरण से न केवल प्रकृति में ही भेद सिद्ध होता है किन्तु वस्तुओं के स्वभाव का भी भेद सिद्ध होता है ।
जब मनुष्य स्वयं अपनी प्रकृति को नहीं जान सकता है तब खान पान की वस्तु प्रकृति की परीक्षा कराने में सहायक हो सकती है, इस का दृष्टान्त यही हो सकता है कि - जिस समय दूसरी किसी रीति से रोग की परीक्षा नहीं हो सकती है तब चतुर वैद्य वा डाक्टर ठंढे वा गर्म इलाज के द्वारा रोग का बहुत कुछ निर्णय कर सकते हैं तथा खान पान के पदार्थों के द्वारा प्रकृति की परीक्षा भी कर लेते हैं, जैसे- जब रोगी को गर्म वस्तु अनुकूल नहीं आती है तो समझ लिया जाता है कि इस की पित्त की प्रकृति है, इसी प्रकार ठंढी वस्तु के अनुकूल न आने से वायु की वा कफ की प्रकृति समझ ली जाती है ।
प्रकृति के मुख्य चार भेद हैं- वातप्रधान, पित्तप्रधान, कफप्रधान और रक्तप्रधान, इन चारों का परस्पर मेल होकर जब मिश्रित ( मिले हुए ) लक्षण प्रतीत होते हैं तब उसे मिश्रप्रकृति कहते हैं, अब इन चारों प्रकृतियों का वर्णन क्रम से करते हैं:
वातप्रधान प्रकृति के मनुष्य - वातप्रधान प्रकृति के मनुष्य के शरीर के अवयव बड़े होते हैं परन्तु विना व्यवस्था के अर्थात् छोटे बड़े और बेडौल होते हैं, उस का शिर शरीर से छोटा या बड़ा होता है, ललाट मुख से छोटा होता है, शरीर सूखा और रूखा होता है, उस के शरीर का रंग फीका और रक्तहीन (विना खून का ) होता है, आंखें काले रंग की होती है, बाल मोटे काले और छोटे होते हैं, चमड़ी तेजरहित तथा रूखी होती है परन्तु स्पर्श का ज्ञान जल्दी कर लेती है, मांस के लोचे करड़े होते हैं परन्तु बिखरे हुए होते हैं, इस प्रकृतिवाले मनुष्य की गति जल्दी चञ्चल और कांपती हुई होती है, रुधिर की गति परिमाणरहित होती है इसलिये किसी का यदि शिर गर्म होता है तो हाथपैर ठंढे होते हैं और किसी का यदि शिर ठंढा होता है तो हाथ पैर गर्म होते हैं, मन यद्यपि काम करने में प्रबल होता है परन्तु चञ्चल अर्थात् अस्थिर होता है, यह पुरुष काम और क्रोध आदि वैरियों के जीतने में अशक्त होता है, इस को प्रीति अप्रीति तथा भय जल्दी पैदा होता है, इस की न्याय और अन्याय के विचार करने में सूक्ष्मदृष्टि होती है परन्तु अपने न्याययुक्त विचार को अपने उपयोग में लाना उस को कठिन होता है, यह सब जीवन को अस्थिर अर्थात् चंचल वृत्ति से गुजारता है, सब कामों में जल्दी करता है, उस के शरीर में रोग बहुत जल्दी आता है तथा उस ( रोग ) का मिटना भी कठिन होता है, वह रोग का सहन भी नहीं कर सकता है, उस को
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