Book Title: Jain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Author(s): Shreepalchandra Yati
Publisher: Pandurang Jawaji
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जैनसम्प्रदायशिक्षा ।
दोहा - वातं वेग पर जो चलै, सांप जोंक ज्यों कोय ॥ पित्तकोप पर सो चले, काक मेंडकी होय ॥ १ ॥ कफ कोपे तब हंसगति, अथवा गति कापोत ॥ तीन दोष पर चलत सो, तित्तर लव ज्यों होत ॥ २ ॥ टेढ़ी है उछलत चलै, वात पित्त पर नारि ॥ टेढ़ी मन्दगती चलै, बात सलेषम कारि ॥ ३ ॥ प्रथम उछल पुनि मन्दगति, चले नाड़ि जो कोय ॥ तौ जानो तिस देह में, कोप पित्त कफ होय ॥ ४ ॥ सोरठा - कबहुँ मन्दगति होय, नारी सो नाड़ी चले ॥
कबहुँ शीघ्र गति सोय, दोष दोय तब जानिये ॥ ५ ॥ दोहा - ठहर ठहर कर जो चले, नाड़ी मृत्यु दिखात ||
पतिवियोगते ज्यों प्रिया, शिर धूनत पछितात ॥ ६ ॥ अति हि क्षीणगति जो चले, अति शीत तर होय ॥ तौ पति की गति नाश की, प्रकट दिखावत सोय ॥ ७ ॥ काम क्रोध उद्वेग भय, व चित्त जिह चार ॥ ताहि वैद्य निश्चय धेरै, चलत जलद गति नार ॥ ८ ॥ छप्पय धातु क्षीण जिस होय मन्द वा अगनी या की । तिस की नाड़ी चलत मन्द ते मन्दतरा की ॥ तपत तौन तन चलन जोन सी भारी नारी । ताहि वैद्य मन धरें तौन सी रुधिर दुखारी ॥
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१- दोहों का संक्षेप में अर्थ - वातवेगवाली नाड़ी सांप और जोंक के समान टेढ़ी चलती है, पित्तवेगवाली नाड़ी - काक और मेंडकी के समान चलती है ॥ १ ॥ कफवेगवाली नाड़ी-हंस और कबूतर के समान चलती है, तीनों दोषोंवाली अर्थात् सन्निपातवेगवाली नाड़ी - तीतर तथा लब (बटेर) के समान चलती है ॥ २ ॥ वातपित्तवेगवाली नाड़ी - टेढ़ी तथा उछलती हुई चलती है, वातकफवेगवाली नाड़ी-टेढ़ी तथा मन्द २ चलती है ॥ ३ ॥ प्रथम उछले पीछे मन्द २ चलै तो शरीर में पित्त कफ का कोप जानना चाहिये ॥ ४ ॥ कभी मन्द २ चले तथा कभी शीघ्र गां से चले, उस नाड़ी को दो दोषोंवाली समझना चाहिये ॥ ५ ॥ जो नाड़ी ठहर २ कर चले, वाई मृत्युको सूचित करती है, जैसे कि पति के वियोग से स्त्री शिर धुनती और पछताती है । ६ । । जो नाड़ी अत्यन्त क्षीणगति हो तथा अत्यंत शीत हो तो वह स्वामी ( रोगी) के नाश की गति को दिखलाती है ॥ ७ ॥ जिस के हृदय में काम क्रोध उद्वेग और भय होते हैं उस की नाड़ी शीघ्र चलती है, यह वैद्य निश्चय जान ले ॥ ८ ॥ जिस की धातु क्षीण हो अथवा जिस की अनि - मन्द हो उस की नाड़ी अति मन्द चलती है, जो नाड़ी तप्त और भारी चलती हो उस से रुधिर ।
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