Book Title: Jain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Author(s): Shreepalchandra Yati
Publisher: Pandurang Jawaji
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जैनसम्प्रदायशिक्षा।
भी महान भयंकर रोग ने इस जीर्ण भारत को धर दबाया है, जिस को देख व सुनकर वज्रहृदय भी विदीर्ण होता है, तिसपर भी आश्चर्य तो यह है कि उस महाभयंकर रोग के पजे से शायद कोई ही भारतवासी रिहाई पा चुका होगा, वह ऐसा भयंकर रोग है कि-ज्यों ही वह (रोग) शिर पर चढ़ा त्योंही (थोड़े ही दिनों में ) वह इस प्रकार थोथा और निकम्मा कर देता है कि जिस प्रकार गेई आदि अन्न में घुन लगने से उस का सत निकल कर उस की अत्यन्त कुदशा हो जाती है कि जिस से वह किसी काम का नहीं रहता है, फिर देखो ! दूसरे रोगों से तो व्यक्तिविशेष (किसी खास ) को ही हानि पहुँचती है परन्तु इस भयंकर रोग से समूह का समूह ही वरन उस से भी अधिक जाति जनसंख्या व देश जनसंख्या ही निकम्मी होकर कुदशा को प्राप्त हो जाती है, सुजनों ! क्या आप को मालूम नहीं है कि यह वही महाभयानक रोग है कि जिस से मनुष्य की सुरत भयावनी तथा नाक कान और आंख आदि इन्द्रियां थोड़े ही दिनों में निकम्मी हो जाती हैं, उस में विचारशक्ति का नाश तक नहीं रहता है, उस को उत्साह और साहस के स्वप्न में भी दर्शन नहीं होते हैं, सच पूछो तो जैसे ज्वर के रहने से तिल्ली आदि रोग हो जाते हैं उसी प्रकार वरन उस से भी अधिक इस महाभयंकर रोग के होने से प्रमेह, निर्बलता, वीर्यविकार, अफरा, दमा, खांसी और क्षय आदि अनेक रोग उत्पन्न होते हैं जिन से शरीर की चमक दमक और शोभा जाती रहती है तथा मनुष्य आलसी और क्रोधी बन जाता है तथा उस की बुद्ध भ्रष्ट हो जाती है, तात्पर्य लिखने का यही है कि इसी महाभयंकर रोग ने इस भारत को बिलकुल ही चौपट कर दिया, इसी ने लोगों को सभ्य से अलभ्य, राजा से रंक (फकीर) और दीर्घायु से अल्पायु बना दिया है, भाइयो! कहां तक गिनाबे सब प्रकार के सुख और वैभव को इसी ने छीन लिया। __ हमारे पाठकगण इस बात को सुनकर अपने मन में विचार करने लगे होंगे कि वह कौन सा महान् रोग बला के समान है तथा उस के नाम को सुनने के लिये अत्यन्त विकल होते होंगे, सो हे सजनों! इस महान् रोग को तो आप उसे सुजन तो क्या किन्तु सब ही जन जानते हैं, क्योंकि प्रतिदिन आप ही सबों के गृहों में इस का निवास हो रहा है, देखो ! कौन ऐसा भारतवर्षीय जन है जो कि वर्तमान समय में इस से न सताया गया हो, जिस ने इस के पापड़ों को न ला हो, जो इस के दुःखों से घायल होकर न तड़फड़ाता हो, यह वह मीठी मार है कि जिस के लगते ही मनुष्य अपने आप ही सर्व सुखों की पूर्णाहुति देकर मियां मेठं बन जाते हैं, इस पर भी तुर्रा यह है कि जब यह रोग किसी गृह में प्रवेश करने को चाहता है तब दो तीन चार अथवा छः मास पहिले ही अपने आगमन की सूचना देता है, जब इस के आगमन के दिन निकट आते हैं तब तो यह उस गृह को पूर्ण रूप से स्वच्छ करता है, उस गृह के निवासियों को ही नहीं किन्तु उन से सम्बन्ध रखनेवालों को भी कपड़े लने सुथरे पहिनाता है, इस के आगमन की
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