Book Title: Jain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Author(s): Shreepalchandra Yati
Publisher: Pandurang Jawaji
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जैनसम्प्रदायशिक्षा।
द्रव्यसम्बन्धी स्थिति में तो गृहस्थों में से बहुत ही थोड़े दिवाला निकालते हैं परन्तु वीर्यसम्बन्धी व्यवहार में तो पुरुषों का विशेष भाग दिवालियों का धन्धा करता है अर्थात् आय की अपेक्षा व्यय विशेप करते हैं और अन्त में युवावस्था में ही निर्बल बन कर पुरुषत्व (पुरुषार्थ) से हीन हो बैठते हैं।
ऊपर जो ऋतुकाल का समय ऋतुस्राव के दिन से सोलह रात्रि लिख चुरे हैं उन में से जितने दिनतक रक्तस्राव होता रहे उतने दिन छोड़ देने चाहिये अर्थात् ऋतुस्राव के दिन ऋतुकाल में नहीं गिनने चाहियें, ऋतुस्राव के प्रायः तीन दिन गिने जाते हैं अर्थात् निरोग स्त्री के तीन दिनतक ऋतुस्राव रहता है, चौथे दिन स्नान करके रजस्वला शुद्ध हो जाती है, ये (ऋतुस्राव के) दिन स्त्रीसंग में निपिद्ध हैं अर्थात् ऋतुस्राव के दिनों में स्त्रीसंग कदापि नहीं करना चाहिये, जो पुरुष मन तथा इन्द्रियों को वश में न रख कर रजस्वला स्त्री से संगम करता है.( जिस के रक्तस्राव होता हो उस स्त्री से समागम करता है) तो उस की दृष्टि आयु तथा तेज की हानि होती है और अधर्म की प्राप्ति होती है, इन के सिवाय रजस्वला से समागम करने से गर्भस्थिति की संभावना नहीं होती है अर्थात् प्रथम तो उस समय में समागम करने से गर्भ ही नहीं रहता है यदि कदाचित् गर्भ रहे भी तो प्रथम के दो दिन में जो गर्भ रहता है वह नहीं जीता है और तीसरे दिन जो गर्भ रहता है वह अल्पायु तथा विकृत अंगवाला होता है।
रजोदर्शन के दिन से लेकर सोलह रात्रि पर्यन्त रात्रियों में चौथी रात्रि से लेकर सोलहवीं रात्रिपर्यन्त ऋतुकाल अर्थात् गर्भाधान का जो समय है उस में भी सम रात्रियां प्रधान हैं अर्थात् चौथी, छठी, आठवीं, दशवीं, बारहवीं, चौदहवीं तथा सोलहवीं रात्रियां उत्तम हैं और इन में भी क्रम से उत्तरोत्तर रात्रियां उत्तम गिनी जाती हैं।
पूर्णमासी, अमावस्या, प्रातःकाल, सन्ध्याकाल, पिछली रात्रि, मध्य रात्रि और मध्याह्नकाल में स्त्रीसंयोग नहीं करना चाहिये, क्योंकि इस से जीवन क क्षय होता है।
गर्भवती से पुरुष को कभी संयोग नहीं करना चाहिये, क्योंकि गर्भावस्था में जिस चेष्टा के अनुसार व्यापार किया जाता है उसी चेष्टा के गुणों से युक्त बालक उत्पन्न होता है और बड़ा होने पर वह बालक विपयी और व्यभिचारी होता है।
विहार के विषय में ऋतु का भी विचार करना आवश्यक है अर्थात् जो ऋतु विहार के लिये योग्य हो उसी में विहार करना चाहिये, विहार के लिये गर्मी की ऋतु विलकुल प्रतिकूल है तथा शीत ऋतु में पौष और माघ; ये दो नहिने विशेष अनुकूल हैं परन्तु किसी भी ऋतु में विहार का अतियोग (अत्यन्त सेवन ) तो परिणाम में हानि ही करता है, यह बात अवश्य लक्ष्य (ध्यान) में रखनी चाहिये।
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