Book Title: Jain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Author(s): Shreepalchandra Yati
Publisher: Pandurang Jawaji
View full book text
________________
३५२
जैनसम्प्रदायशिक्षा।
नीच पुरुषों पर डाल दिया जाता है, देखो ! जब कोई पुरुप एक पैसे की हांडी को भी मोल लेता है तो उस को खूब ठोक बजा कर लेता है परन्तु अफसोस है कि इस कार्य पर कि जिस पर अपने आत्मजों का सुख निर्भर है किञ्चित् भी ध्यान नहीं दिया जाता है, सुजन!! यह काय रसा नहीं है कि इस को सामान्य बुद्धिवाला मनुष्य कर सके किन्तु यह कार्य तो ऐसे मनु के करने का है कि जो विद्वान तथा निर्लोभ हो और संसार को खूब देग्वे हुए हो, क्या आप इन नाई बारी भाट और पुरोहितों को नहीं जानते है कि ये लोग केवल एक एक मेपर प्राण दे । हैं, फिर उन की बुद्धि की क्या तारीफ करें, उन की बुद्धि का तो साधारण नमूना यही है कि वार सभ्य पुरुषों में बैठ कर वे बात तक का कहना भी नहीं जानते हैं, न तो वे कुछ पढ़े लिए ही होते हैं और न विद्वानों का ही संग किये हुए होते हैं फिर भला वे लोभरहित और बुद्धिमान् कहां से हो सकते हैं, देखो संसार में लोभ से बचना अति कठिन काम है क्योंकि यह बड़ा बल ग्रह है, इस ने बड़े २ विद्वान् तथा महात्माओं को भी सताया है, तथा सताता है, इसी लोन में आकर औरंगजेब ने अपने पिता और भ्राता को भी मार डाला था, लोभ के ही कारण आकल भाई भाइयों में भी नहीं बनती है, फिर भला उन का क्या कहना है कि जो दिन रात धन की लालसा में लगे रहते हैं और उस के लिये लोगों की झूठी खुशामद करते है, उन की तो स झात् यह दशा देखी गई है कि चाहें लड़का काला और कुवड़ा आदि कैसा ही क्यों न हो किन्तु जहां लड़के के पिता ने उन से मुठी गर्म करने का प्रण किया वा खूब आवभगत से उन को लियः त्यों ही वे लोग लड़कीवाले से आकर लड़के की तथा कुल की बहुत ही प्रशंसा करते हैं अर्थात् सम्बंध करा ही देते हैं, परन्तु यदि लड़केवाला उन को मुद्री को गर्म नहीं करता है तथ उन की आवभक्ति नहीं करता है तो चाहें लड़का कैसा ही उत्तम क्यो न हो तो भी वे लोग पाकर लड़कीवाले से बहुत अप्रशंसा तथा निन्दा कर देते हैं जिसके कारण परस्पर सम्बन्ध नहीं होता है और यदि दैवयोगसे सम्बन्ध हो भी आता है तो पति पत्तियों में परस्पर प्रेम नहीं रहता है कि वे (वर और कन्या) भाट आदि के द्वारा एक दूसरे की निन्दा सुने हुए होते है, इन्ही अप्रपन्यों और परस्पर के द्वेष के कारण बहुधा मनुष्य नाना प्रकार की कुचालों में पड़ गये और उनमें ने अपनी अर्धाङ्गिनीरूप बहुतेरी बालिकाओं को जीते जी रंडापे का स्वाद चखा दिया, इधर नाई बारी और पुरोहित आदि के दुखड़े का तो रोना है ही परन्तु उपर एक महान् शोक का स्थान और भी है कि माता पिता आदि भी न पुत्र को देखते हैं और न पुत्री को देखते हैं, हां यदि आंखें खोल कर देखते हैं तो यही देखते हैं कि कितना रुपया पास है और क्या २ माल टाल है किन्तु पुत्र और पुत्री चाहे चोर और ज्वारी क्यों न हों, चाहे समस्त धन को दो ही दिन में डा दें
और चाहे लड़की अपने फूहरपन से गृह को पति के वास्ते जेलखाना हा क्यों न बना दे परन्तु इस की उन्है कुछ भी चिन्ता नहीं होती है, सत्य पूछो तो यही कहा जा सकता है कि वे बवाह को पत्र के साथ नहीं बरन धन के साथ करते हैं, जब उन को कोई बुराई प्रकट होती तब कहते हैं कि हम क्या करें. हमारे यहां तो सदा से ऐसा ही होता चला आया है, प्रिय महायो! देखिये ! इधर माता पिता आदि की तो यह लीला है, अब उधर शास्त्रकार क्या कह ! हैशास्त्रकारों का कथन है कि चाहें पुत्र और पुत्री मरणपर्यंत कुमारे (अविवाहित ) ही क्यों न रहे परन्तु असदृश अर्थात् परस्परविरुद्ध गुण कर्न और स्वभाववालो का विवाह नहीं करना चाहिये इत्यादि, देखिये । प्राचीन काल में आप के पुरुष लोग इसी शास्त्रोक्त आज्ञा के अनुसार अपने पुत्र और पुत्रयों का विवाह करते थे, जिस का फल यह था कि उस समय में यह स्थाश्रम स्वर्गधामकी शोभा को दिखला रहा था, शानकारेकी यह न मम्मति है कि जो पुरुष विद्या और अच्छी शिक्षासे युक्त एक दूसरेको अपनी इच्छासे पसन्द कर विवाह करते हैं वे हो उत्तम सन्तानोंको उत्पन्न कर सदा प्रसन्न रहते हैं, इस कथनका मुख्य तात्पय यही है कि इन ऊपर कहे हुए गुणों में जिस पुरुषको और जिस रासे जिस पुरुषसे जिस स्त्रीको अधिक आनन्द
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com