Book Title: Jain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Author(s): Shreepalchandra Yati
Publisher: Pandurang Jawaji
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जैनसम्प्रदायशिक्षा।
भक्ति करते हैं तथा प्रतिदिन शामको सैर होती है इत्यादि, उक्त धर्मी पुरुषों का इस तु में
सा महोत्सव करना अत्यन्त ही प्रशंसा के योग्य है, इस महोत्सवका उपदेश करनेवाले हमारे वाचीन यति प्राणाचार्यही हुए हैं, उन्हीं का इस भव तथा परभव में हितकारी यह उपदेश आजतक चल रहा है, इस बात की बहुत ही हमें खुशी है, तथा हम उन पुरुषों को अरन्त ही धन्यवाद देते हैं, जो आजतक उक्त उपदेश को मान कर उसी के अनुसार वत्ताव कर अपने जन्म को सफल कर रहे हैं, क्योंकि इस काल के लोग परभव का खयाल बहुत कम करते हैं, पानीन समय में जो आचार्य लोगों ने इस ऋतु में अनेक महोत्सव नियत किये थे उन का तात्पः केवल यही था कि मनुष्यों का परभव भी सुधरे तथा इस भव में भी ऋतु के अनुसार उत्सादि में परिश्रम करने से आरोग्यता आदि वातों की प्राप्ति हो, यद्यपि वे उत्सव रूपान्तर में अब भी देखें जाते हैं परन्तु लोग उन के तत्त्व को बिलकुल नहीं सोचते हैं और मनमाना वर्ताव करते हैं देखो : कागी पुरुष होली तथा गौर अर्थात् मदनमहोत्सव (होली तथा गौर की उत्पत्ति हाल ग्रन्थ बड़ जाने के भय से यहां नहीं लिखना चाहते हैं फिर किसी समय इन का वृत्तान्न पाटकों की सेवा में उपस्थित किया जावेगा) में कमा २ वर्ताव करने लगे हैं, इस महोत्सव में वे लोग यद्यपि दालिये और बड़े आदि कफोच्छेदक पदाथों को खाते हैं तथा खेल तमाशा आदि करने के पहाने रात को जागना आदि परिश्रम भी करते हैं जिस से कफ घटता है परन्तु होली महोसबमें वे लोग कैसे २ महा असम्बद्ध वचन बोलते हैं, यह बहुत ही खराब प्रथा पड़ गई है,
मानों को चाहिये कि इस हानिकारक तथा भांटो की सी चेष्टा को अवश्य छोड़ दें, क्योंकि इन महा सम्बद वचनों के बकने से मज्जातन्तु कमजोर होकर शरीर में तथा बुद्धिमें खराबी होता है, यह यावीन प्रथा नहीं है किन्तु अनुमान ढाई हजार वर्ष से यह मां चेष्टा वाममाग। (कृष्णः । पन्थी) लोगों के मताध्यक्षों ने चलाई है तथा भोले लोगों ने इस को मझलकारी मान रचला है क्योंकि उन को इस बात की विलकुल खवर नहीं है कि यह महा असम्बद्ध वचन का का झंडा पन्थियों का मुख्य भजन है, यह दुश्चेष्टा मारवाड़ के लोगों में बहुत ही प्रचलित हो रही है, इस से यद्यपि वहां के लोग अनेक वार अनेक हानियों को उठा चुके हैं परन्तु अब क नहीं सँभलते हैं, यह केवल अविद्या देवी का प्रसाद है कि वर्तमान समय में ऋतु के विपरीत अनेक मनःकल्पित व्यवहार प्रचलित हो गये हैं तथा एक दूसरे की देखादेखी और भी प्रचलित होते जाते हैं, अव तो सचमुच कुए में भांग गिरने की कहावत हो गई है, यथा-"अविद्याऽनेक प्रकार की, पटपट माहि अड़ी। कोकाको समुझावही, कृए भांग पड़ी" ।।१।।जिस में भी मावाड़ की दशा को तो कुछ भी न पूछिये, यहां तो मारवाड़ी भाषा की यह कहावत बिलकुल ही सत्य होगई है कि-"म्हाने तो रातींधो भाभे जी ने मन लोई राम" अर्थात् कोई २ मर्द लो. तो टन वातों को रोकना भी चाहते हैं परन्तु घर की वणियानियों ( स्वामिनियों) के सामने बेला से चहे की तरह उन बेचारों को डरना ही पड़ता है, देखो! वसन्त ऋतु में टंडा खाना बढी हानि करता है परन्तु यहां शील सातम (शीतला सप्तमी) को सब ही लोग ठंडा खाते है, गुड़ भी इस ऋतु में महा हानिकारक है उस के भी शीलसातम के दिन खाने के लिये एक दिन पहिले ही से गुलराव, गुलपपड़ी और तेलपपड़ी आदि पदार्थ वना कर अवश्य ही इस मौसम में खाते हैं, यह वास्तव में तो अविद्या देवी का प्रसाद है परन्तु शीतला देवी के नाम का बहाना है, हे कुलवती गृहलक्ष्मीयों ! जरा विचार तो करो कि-दया धर्म से विरुद्ध और शरीर को हानि पहुँ पानेवाले. अर्थात् इस भव और परभव को बिगाइनेवाले इस प्रकार के खान पान से क्या लाभ ? जिस शीतला देवी को पूजते २ तुम्हारी पीढ़ियां तक गुजर गई परन्तु आज तक शीतला देव ने तुम पर कृपा नहीं की अर्थात् आज तक तुम्हारे बच्चे इसी शीतला देवी के प्रभाव से कान अन्धे, कुरूप, लूले और लँगड़े हो रहे हैं और हज़ारों मर रहे हैं, फिर ऐसी देवी को पूजने से तुम्हें म्या लाभ हुआ ? इस लिये इस की पूजा को छोड़कर उन प्रत्यक्ष अंग्रेज देवों को पूजो कि
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