Book Title: Jain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Author(s): Shreepalchandra Yati
Publisher: Pandurang Jawaji
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जैनसम्प्रदायशिक्षा ।
यदि कोई इस वमन और दस्त को रोक देवे तो हानि होती है, क्योंकि जीव के साथ सम्बन्ध रखनेवाली जो सातावेदनी कर्म की शक्ति है वह पेट के भीतरी बोझे और दर्द को मिटाने के लिये वमन और दस्त की किया को पैदा करती है, शरीरपर फोड़े, फफोले और छोटी २ गुमड़िया होकर अपने आप ही मिट जाती हैं तथा जुखाम, शर्दी गर्मी और खांसी होकर प्रायः इलाज के विना ( अपने आप ही) मिट जाती है, और इन के कारण उत्पन्न हुआ बुखार भी अपने आप ही चला जाता है, तात्पर्य यही है कि-असातावेदनी कर्म तो जीव के साथ प्रदेशबन्ध में रहता है और वह अलग है किन्तु सातावेदनी कर्म जीव के सर्व प्रदेशों में सम्बद्ध है, इस लिये ऊपर लिखी व्यवस्था होती है, जैसे-पक्की दीवारपर सूखे चूने की वा धूल की मुट्ठी के डालने से वह (सूखा चूना वा धूल) थोड़ा सा रह जाता है, बाकी गिर जाता है, बाकी रहा वह हवा के झपट्टे से अलग हो जाता है, इसी क्रम से वह रोग भी स्वतः मिट जाता है, इस से यह सिद्ध हुआ कि जीव के साथ कर्मों के चार बन्ध हैं अर्थात् प्रकृतिबन्ध, स्थिनिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदे. शबन्ध, इन चारों बन्धों को लड्डु के दृष्टान्त से समझ लेना चाहिये-देखो ! जैसे सोंठ के लड्ड की प्रकृति अर्थात् स्वभाव ती ( तीखा ) होता है. इस को प्रकृ. तिबन्ध कहते हैं, वह लड्डु महीने भरतक अथवा बीच दिनतक निज स्वभाव से रहता है इस के बाद उस में वह स्वभाव नहीं रहता है, इस को स्थितिबन्ध अर्थात् अवधि (मुद्दत ) बन्ध कहते हैं, छटांक भर का, आधपाव का अथवा पाव भर का लड्डु है, इत्यादि परिमाण आदि को अनुभागबन्ध कहते हैं, जिन २ पदार्थों के परमाणुओं को इकट्ठा कर के वह लड्ड बांधा गया है उस में स्थित जो पदार्थों के प्रदेश हैं उन को प्रदेशबन्ध कहते हैं, प्रकृतिबन्ध के विषय में इतना और भी जान लेना चाहिये कि-जैसे ज्ञानावरणी कर्म का स्वभाव आंखपर पट्टी बांधने के समान है उसी प्रकार भिन्न २ कर्मों का भिन्न २ स्वभाव है, इन्हीं कमों के सम्बन्ध के अनुकूल प्रदेशबन्ध के द्वारा उत्पन्न हुआ रोग साध्य तथा कष्टसाध्यतक होता है, और स्थितिबन्धवाला रोग साध्य, असाध्य और कष्टसाध्यतक होता है, इसी प्रकार अनेक दर्द कर्मस्वभावद्वारा अर्थात् स्वभाव से (विना ही परिश्रम के ) मिट जाते हैं परन्तु इस से यह नहीं समझ लेना चाहिये कि सब ही दर्द और रोग विना परिश्रम और विना इलाज के अच्छे हो जावेंगे, क्योंकि कर्मस्वभावजन्य कारणों में अन्तर होता है, देखो ! थोड़ी अज्ञानता से जब थोड़ासा कष्ट अर्थात् अल्प बुखार शदी और पेट का दर्द आदि होता है तब तो वह शरीर में एक दो दिनतक गर्मी शर्दी दस्त और वमन आदि की थोड़ीसी तकलीफ देकर अपने आप मिट जाता
१-जैसे मांट का स्वभाव वायु और कफ के हरने का है । २-जैसे भिन्न २ लट्ठ का भिन्न २ स्वभाव पित्त के, वायु के और कफ के हरने का है । ३-शमी का स्वरूप यदि विस्तारपूर्वक देखना हो तो कर्मप्रतिपादक ग्रन्थों में देखो ।।
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