Book Title: Jain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Author(s): Shreepalchandra Yati
Publisher: Pandurang Jawaji
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जैनसम्प्रदायशिक्षा ।
इस के असली तत्त्व को न समझ कर वे इस का हास्य कर अपनी विशेष अज्ञानता को प्रकट करते हैं, इसी प्रकार भाद्रपद में पित्त के सञ्चित हो चुकने से उस के कोप का समय समीप आता है इस लिये सर्वज्ञ ने पऍपणपर्व को स्थापन किया जिस में तेला उपवासादि करना होता है तथा इस की समाप्ति होने पर पारणे में लोग मीठा रस और दूध आदि पदार्थों को खाते हैं जिन के खाने से पित्त की बिलकुल शान्ति हो जाती है, देखो ! चरक ने दोपों को पकाने के लिये लंवन को सर्वोपरि पथ्य लिखा है उस में भी पित्त और कफ के लिये तो कहना ही क्या है, इसी नियम को लेकर आश्विन (आसोज ) सुदि सप्तमी वा अष्टमी से जैनधर्म वाले नौ दिन तक आंबिल करते हैं तथा मन्दिरों में जाकर दीप और धूप आदि सुगन्धित वस्तुओं से स्नात्र अष्टप्रकारी और नवपदादि पूजा करते हैं जिस से शन्द् ऋतु की हवा भी साफ होती है, क्योंकि इस ऋतु की हवा बहुत ही जहरीली होती है, शरीर में जो पित्त से रक्तसम्बंधी विकार होता है वह भी आंविल के संप से शान्त हो जाता है, इसी प्रकार वसन्त ऋतु की हवा को शुद्ध करने के लिये भी चैत्र सुदि सप्तमी वा अष्टमी से लेकर नौदिन तक यही (पूर्वोक्त तप) विधिपूर्वक किया जाता है जिस के पूजासम्बन्धी व्यवहार से हवा साफ होती है तथा उक्त तप से कफ की भी शान्ति होती है, इसी प्रकार से जो २ पर्व बांधे गये हैं वे सब वैद्यक विद्याके आश्रय से ही धर्मव्यवस्था प्रचारार्थ उस सर्वज्ञ के द्वारा आदिष्ट ( कथित ) हैं, एवं अन्य मतों में भी देखने से वही व्यवस्था प्रतीत होती है जिस का वर्णन अभी कर चुके हैं, देखो ! आश्विन के कृष्णपक्ष में ब्राह्मणों ने जो श्राद्धभोजन चलाया है वह भी वैद्यक विद्या से सम्बंध रखता है अर्थात् श्राद्ध
१-तेला उपवास अथात् तीन दिन का उपवास ! २-उपवास अथवा व्रत नियम के समाप्त ह ने पर प्रकृत्यनुसार उपयोज्य वस्तु के उपयोग को पारण कहते हैं ।। ३-अर्थात् पित्त और कफ के पर ने के लिये तथा उन की शान्ति के लिये तो लंघन ही मुख्य उपाय है ॥ ४-आंबिल तप उसे करते हैं जिस में सब रसों का त्याग कर चावल, गेहूं, चना, मूंग और उड़द इन पांच अन्नों में से के ल एक अन्न निमक के विना ही सिजाया हुआ खाया जाता है और गर्म कियाहुआ जल पिया जाता है ।। ५-परन्तु महाशक का विषय है कि वत्तमान समय में अविद्या के कारण इस (श्राद्ध) में के. एक नय मात्र घटता है अर्थात् सर्वांग नयपूर्वक श्राद्ध की क्रिया वर्तमान में नहीं होती है । लिये इस से लाभ की अपेक्षा हानि अधिक होती है, देखो ! वैद्यकशास्त्रानुसार इस ऋतु में ग्र का भोजन कुपथ्य है, क्योंकि खीर का भोजन पित्तकारी और गर्म है परन्तु श्राद्धी ब्राह्मण इने खूब खाते हैं, फिर देखो ! श्राद्ध में जीमनेवाले ब्राह्मग पेट भर कर गलेतक पराया माल ग जाते हैं और शरद् ऋतु में अधिक भोजन का करना मानों यम की डाड़ में जाना है, फिर यह भी देखा गया है कि एक एक ब्रह्मण के आठ २ दश २ निमन्त्रण आते हैं और वे अज्ञानता से दक्षिणा के लोभ से सब जगह भोजन करते ही जाते हैं किन्तु यह नहीं समझते हैं कि अध्ययन (भोजन पर भोजन करना) मब रोगों का मूल है, यद्यपि पूर्व लिखे अनुसार श्राद्ध चलानेवाले का प्रयोजन वैद्यक विद्या के अनुकूल ही होगा कि श्राद्ध में मधुर पदार्थों के सेवन से पित्त की शान्ति हो, और बुइनान् पुरुष इस पर ध्यान देने से इस के उक्त प्रयोजन को समझ सकते हैं और मान भी सकते है. परन्तु वत्तमान समय में जो श्राद्ध में आचरण हो रहा है बह तो मनुष्य को
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