Book Title: Jain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Author(s): Shreepalchandra Yati
Publisher: Pandurang Jawaji
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जैनसम्प्रदायशिक्षा ।
४ वेश्यागमन-चौथा व्यसन वेश्यागमन है, इस के सेवन से भी हज़ से लाखों बर्वाद होगये और होते हुए दीख पड़ते हैं, देखो ! संसार में तन धन और प्रतिष्ठा, ये तीन पदार्थ अमूल्य समझे जाते हैं परन्तु इस महाव्यसन से उक्त तीनों पदार्थों का नाश होता है, आहा ! श्रीभर्तृहरि महाराज ने कैसा अच्छा कह है
१-इन का इतिहास इस प्रकार है कि-उज्जयिनी नगरी में सकलविद्यानिपुण और परम दूर राजा भर्तृहरी राज्य करता था, उस के दो भाई थे, जिन में से एक का नाम विक्रम था (संवत् इसी विक्रम राजा का चल रहा है) और दूसरे का नाम सुभट वीर्य था, इन दो भाइयों के सिवाय तीसरी एक छोटी बहिन भी थी जिसका सम्बंध गौड़ ( बंगाल ) देश के सार्वभौम रजा त्रैलोक्यचन्द्र के साथ हुआ था, इस भर्तृहरि राजा का पुत्र गोपीचंद नाम से संसार में प्रसिद्ध है, यह भर्तृहरि राजा प्रथम युवावस्था में अति विषयलम्पट था, उस की यह व्यवस्था थी कि उस को एक निमेप भी स्त्री के विना एक वर्ष के समान मालम होता था, उस के ऐसे विषयाक्त होने के कारण यद्यपि राज्य का सब कार्य युवा राजा विक्रम ही चलाता था परन्तु यह भरि अत्यन्त दयाशील था और अपनी समस्त प्रजा में पूर्ण अनुराग रखता था, इसी लिये प्रजा भी इस में पितृतुल्य प्रेम रखती थी, एक दिन का जिक्र है कि-उस की प्रजा का एक विद्वान् वा गण जंगल में गया और वहां जाकर उस ने एक ऋषि से मुलाकात की तथा ऋषि ने प्रसन्न ह कर उस ब्राह्मण को एक अमृतफल दिया और कहा कि इस फल को जो कोई खावेगा उसे जरा नहीं प्राप्त होगी अर्थात् उसे बुढ़ापा कभी नहीं सतावेगा और शरीर में शक्ति बनी रहेगी, ब्राह्मण उस फल को लेकर अपने घर आया और विचारने लगा कि यदि में इस फल को खाऊं तो मुझे यद्यपि जरा (वृद्धावस्था) तो प्राप्त नहीं होगी परन्तु मैं महादरिद्री हूँ, यदि मैं इस फल को र ऊं तो दरिद्रता से और भी बहुत समयतक महा कष्ट उठाना पड़ेगा और निर्धन होने से मुझ से परोपकार भी कुछ नहीं बन सकेगा, इस लिये जिस के हाथ से अनेक प्राणियों की पालना हनी है उस भर्तहरिराजा को यह फल देना चाहिये कि जिस से वह बहुत दिनोंतक राज्य कर जा को सुखी करता रहे, यह विचार कर उस ने राजसभा में जाकर उस उत्तम फल को राजा को अर्पण कर दिया और उस के गुण भी राजा को कह सुनाये, राजा उस फल को पाकर बहुत प्रसन्न हुआ और ब्राह्मण को बहुतसा द्रव्य और सन्मान देकर विदा किया, तदनन्तर रूं में अत्यन्त प्रीति होने के कारण राजा ने यह विचार किया कि यह फल अपनी परम प्यारी र को देऊं तो ठीक हो, क्योंकि वह इस को खाकर सदा यौवनवती और लावण्ययुक्त रहेगी, यह विचार कर वह फल राजा ने अपनी स्त्री को दे दिया, रानी ने अपने मन में विचार किया कि मैं रानी हूँ मुझ को किसी बात की तकलीफ नहीं है फिर मुझ को बुढ़ापा क्या तकलीफ दे स-ता है, ऐसा विचार कर उस ने उस फल को अपने यार कोतवाल को दे दिया (क्योंकि उन की कोतवाल से यारी थी ) उस फल को लेकर कोतवाल ने विचारा कि-मेरे हाथ में राजा की र नी है और सब प्रकार का माल में खाता हूं मेरा वृद्धावस्था क्या कर सकेगी, इसलिये अपनी प्यारी चन्द्रकला वेश्या को यह फल दे दूं, ऐसा विचार कर कोतवाल ने वह अमृतफल उसी वेश्या को जाकर दे दिया, वह चंद्रकला वेश्या भी विचार करने लगी कि मुझ को अच्छे२ पदार्थ खाने को मिलते हैं, नगर का कोतवाल मेरे हाथ में है, मेरा बुढ़ापा क्या कर सकता है, इस लिये इस उत्तम फल को मैं भर्तृहरि राजा को भेंट कर दूं तो अच्छा है, ऐसा विचार कर उस ने दर्वार में जाकर वह फल राजा को भेंट किया और उस फल के पूर्वोक्त गुण कहे, राजा फल को ख अत्यन्त आश्चर्य करने लगा और मन में विचार ने लगा कि इस फल को तो मैं ने अपनी रानी को दिया था यह फल इस वेश्या के पास कैसे पहुँचा? आखिरकार तलाश कर ने पर राजा को सब हाल मालूम हो गया और उस के मालम होनेसे राजा को उसी समय अत्यन्त वैराग्य सात
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