Book Title: Jain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Author(s): Shreepalchandra Yati
Publisher: Pandurang Jawaji
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चतुर्थ अध्याय ।
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को कसरत प्राप्त हो, इस लिये इस ऋतु के प्राचीन उत्सवों का प्रचार कर उन में प्रवृत्त होना परम आवश्यक है, क्योंकि इन उत्सवों से शरीर नीरोग रहता है तथा चित्त को प्रसन्नता भी प्राप्त होती है ।
४ - वसन्तऋतु की हवा बहुत फायदेमन्द मानी गई है इसी लिये शास्त्रकारों का कथन है कि "वसन्ते भ्रमणं पथ्यम्” अर्थात् वसन्तऋतु में भ्रमण करना पथ्य है, इस लिये इस ऋतु में प्रातः काल तथा सायंकाल को वायु के सेवन के लिये दो चार मील तक अवश्य जाना चाहिये, क्योंकि ऐसा करने से वायु का सेवन भी हो जाता है तथा जाने आने के परिश्रम के द्वारा कसरत भी हो जाती है, देखो! किसी बुद्धिमान् का कथन है कि - "सौ दवा और एक हवा" यह बात बहुत ही ठीक है इसलिये आरोग्यता रखने की इच्छावालों को उचित है कि अवइयमेव प्रातःकाल सदैव दो चार मील तक फिरा करें ।
जिन्होंने इस देवी को माता के दूध का विकार समझ कर उस को खोद कर ( टीके की चाल को प्रचलित कर) निकाल डाला और बालकों को महा संकट से बचाया है, देखो ! वे लोग ऐसे २ उपकारों के करने से ही आज साहिब के नाम से विख्यात हैं, देखो ! अन्धपरम्परा पर न चलकर तत्त्व का विचार करना बुद्धिमानों का काम है, कितने अफसोस की बात है कि कोई २ स्त्रियां तीन २ दिन तक का ठंढा ( बासा ) अन्न खाती हैं, भला कहिये इससे हानि के सिवाय और क्या मतलब निकलता है, स्मरण रक्खो कि थंढा खाना सदा ही अनेक हानियों को करता हैं अर्थात् इससे बुद्धि कम हो जाती है तथा शरीर में अनेक रोग हो जाते हैं, जब हम बीकानेर की तरफ देखते हैं तो यहां भी बड़ी ही अन्धपरम्परा दृष्टिगत होती है कि यहां के लोग तो सवेरे की सरावणी में प्रायः बालक से लेकर वृद्धपर्यन्त दही और वाजरी की अथवा गेहूँ की बासी रोटी. खाते हैं जिस का फल भी हम प्रत्यक्ष ही नेत्रों से देख रहे हैं कि यहां के लोग उत्साह बुद्धि और सद्विचार आदि गुणों से हीन दीख पड़ते हैं. अब अन्त में हमें इस पवित्र देश की कुलवतियों से यही कहना हैं कि हे कुलवती स्त्रियो ! शीतला रोग की तो समस्त हानियों को उपकारी डाक्टरों नेलकुल ही कम कर दिया है अब तुम इस कुत्सित प्रथा को क्यों तिलाञ्जलि नही देती हो ? देखो ! ऐसा प्रतीत होता है कि प्राचीन समय में इस ऋतु में कफ की और दुष्कर्मों की निवृत्ति के प्रयोजन से किसी महापुरुष ने सप्तमी वा अष्टमी को शीलव्रत पालने और चूल्हे को न सुलगाने के लिये अर्थात् उपवास करने के लिये कहा होगा परन्तु पीछे से उस कथन के असली तात्पर्य को न समझ कर मिथ्यात्ववश किसी धूर्त ने यह शीतला का ढंग शुरू कर दिया और वह कम २ से पनघट के घावरे के समान बढ़ता २ इस मारवाड़ में तथा अन्य देशों में भी सर्वत्र फैल गया. ( पनघट के घाघरे का वृत्तान्त इस प्रकार है कि किसी समय दिल्ली में पनघट पर किर्स स्त्री का घाघरा खुल गया, उसे देखकर लोगों ने कहा कि "घाघरा पड़ गया रे, घाघरा पड़ गया" उन लोगों का कथन दूर खड़े हुए लोगों को ऐसा सुनाई दिया कि - 'आगरा जल गया रे, आगरा जल गया' इसके बाद यह बात कर्णपरम्परा के द्वारा तमाम दिल्ली में फैल गई और बाद शाह के कानों तक पहुँच गई कि 'आगरा जल गया रे, आगरा जल गया' परन्तु जब वादशाह ने इस बात की तहकी कात की तो मालूम हुआ कि आगरा नहीं जल गया किन्तु पनघट की स्त्री का घाघरा खुल गया हैं) हे परममित्रो ! देखो! संसार का तो ऐसा ढंग हैं इसलिये सुज्ञ पुरुषों को उक्त हानिकारक बातों पर अवश्य ध्यान देकर उन का सुधार करना चाहिये ||
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