Book Title: Jain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Author(s): Shreepalchandra Yati
Publisher: Pandurang Jawaji
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चतुर्थ अध्याय।
२६३ रुचि के अनुसार किया हुआ भोजन अधिक जल का पीना, भोजन तथा प्रायः पथ्य (हितकारी) होता है प्यास की इच्छा का रोकना, सूर्योदय इसलिये प्रकृति आदि का विचार रखना से ३ घण्टे पूर्व ही भोजन करना तथा चाहिये इत्यादि।
अरुचि के पदार्थों का खाना आदि।
पथ्यविहार। १-धोये हुए साफ वस्त्रों का पहरना और शक्ति के अनुसार अतर गुलाब जल
और केवड़ा जल आदि से वस्त्रों को सुवासित रखना, उष्ण ऋतु में पनड़ी और खस आदि के अतर का तथा शीतकाल में हिना और मसाले आदि का उपयोग करना चाहिये। २-बिछौना और पलंग आदि साधनों को साक और सुघड़ रखना चाहिये। ३-दक्षिण की हवा का सेवन करना चाहिये। ४-हाथ, पैर, कान, नाक, मुख और गुप्तस्थान आदि शरीर के अवयवों में मैल
का जमाव नहीं होने देना चाहिये। ५-गर्मी की ऋतु में महीन कपड़े पहरना तथा शीतकाल में गर्म कपड़े पहरना चाहिये। ६-पांच २ दिन के बाद क्षौर कर्म (हज़ामत) करना चाहिये। ७-प्रतिदिन शक्ति के अनुसार दण्ड बैठक और घोड़े की सवारी आदि कर कुछ न
कुछ कसरत करना तथा साफ हवा को खाना चाहिये। ४-हल के बज़न के हार कुण्डल और अंगूठी आदि गहनों को पहरना चाहिये । ९-मलमूत्र के वेग को नहीं रोकना चाहिये, तथा बलपूर्वक उन के वेग को
उत्पन्न नहीं करना चाहिये। १० -मूत्र तथा दस्त आदि का वेग होनेपर स्त्रीगमन नहीं करना चाहिये। ११- स्त्रीसंग का बहुत नियम रखना चाहिये। १२-चित्त की वृत्ति में सतोगुण और आनंद के रखने के लिये सतोगुणवाला
भोजन करना चाहिये। १३-दो घड़ी प्रभात में तथा दो घड़ी सन्ध्या समय में सब जीवोंपर समता
परिणाम रखना चाहिये।
१- दक्षिण की हवा आरोग्यता को स्थिर रखती है इसलिये इसीका सेवन करना चाहिये ।। २-वे गर्म कपड़े वज़न में ज्यों कम हों त्यों अच्छे होते हैं ॥ ३-हजामत कराने से शरीर और दिमाग में नये खून का सञ्चार होता है तथा दरिद्र उतर कर चित प्रसन्न होता है ॥ ४-यदि घोड़े की सवारी का अभ्यास हो तो उसे करना चाहिये ॥ ५-देखो! आनन्द श्रावक ने कुण्डल और अंगूठी इन दो ही भूषणों का पहरना रक्खाथा ॥ .
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