Book Title: Jain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Author(s): Shreepalchandra Yati
Publisher: Pandurang Jawaji
View full book text
________________
चतुर्थ अध्याय ।
२१७
ऊपर लिखी हुई वस्तुओं को दूध के साथ खाने पीने से जो अवगुण होता है, यद्यपि उस की खबर खानेवाले को शीघ्र ही नहीं मालूम पड़ती है, तथापि कालान्तर में तो वह अवगुण प्रबलरूप से प्रकट होता ही है, क्योंकि सर्वज्ञ परमात्मा ने भक्ष्याभक्ष्य निर्णय में जो कुछ कथन किया है तथा उन्हीं के कथन के अनुसार जैनाचार्य उमास्वातिवाचक आदि के बनाये हुए ग्रन्थों में तथा जैनाचार्य श्री जिनदत्त सूरिजी महाराज के बनाये हुए 'विवेकविलास, चर्चरी' आदि ग्रन्थों में जो कुछ लिखा है वह अन्यथा कभी नहीं हो सकता है, क्योंकि उक्त महात्माओं का कथन तीन काल में भी अबाधित तथा युक्ति और प्रमाणों से सिद्ध है, इस लिये ऐसे महानुभाव और परम परोपकारी विद्वानों के वचनों पर सदा प्रतीति रख कर सर्व जीवहितकारक परम पुरुष की आज्ञा के अनुसार चलना ही मनुष्य के लिये कल्याणकारी है, क्योंकि उन का सत्य वचन सदा पथ्य और सब के लिये हितकारी है ।
देखो ! सैकड़ों मनुष्य ऊपर लिखे खान पान को ठीक तौर से न समझ कर जब अनेक रोगों के झपाटे में आ जाते हैं तब उन को आश्चर्य होता है कि
अरे यह क्या हो गया ! हम ने तो कोई कुपथ्य नहीं किया था फिर यह रोग कैसे उत्पन्न हो गया ! इस प्रकार से आश्चर्य में पड़ कर वे रोग के कारण की खोज करते हैं तो भी उन को रोग का कारण नहीं मालूम पड़ता है, क्योंकि रोग के दूरवर्ती कारण का पता लगाना बहुत कठिन बात है, तात्पर्य यह है कि- बहुत दिनों पहिले जो इस प्रकार के विरुद्ध खान पान किये हुए होते हैं वेही अनेक रोगों के दूरवर्ती कारण होते हैं अर्थात् उन का असर शरीर में विष के तुल्य होता है, और उन का पता लगना भी कठिन होता है, इस लिये मनुष्यों को जन्मभर दुःख में ही निर्वाह करना पड़ता है, इस लिये सर्व साधारण को उचित है कि-संयोगविरुद्ध भोजनों को जान कर उन का विष के तुल्य त्याग कर देवें, क्योंकि देखो ! सदा पथ्य और परिमित ( परिमाण के अनुकूल ) आहार करनेवालों को भी जो अकस्मात् रोग हो जाता है, उस का कारण भी वही अज्ञानता के कारण पूर्व समय में किया हुआ संयोगविरुद्ध आहार ही होता है, क्योंकि वही ( पूर्व समय में किया हुआ संयोगविरुद्ध आहार ही ) समय पाकर अपने समवायों के साथ मिलकर झट मनुष्यको रोगी कर देता है, संयोगविरुद्ध आहार के बहुत से भेद हैं-उन में से कुछ भेदों का वर्णन समयानुसार क्रम से आगे किया जायेगा ।
१- यह दूध का तथा संयोगविरुद्ध आहार का ( प्रसंगवश ) कुछ वर्णन किया है तथा कुछ वर्णन संयोगविरुद्ध आहार का ( ऊपर लिखी प्रतिज्ञा के अनुसार ) आगे किया जायगा, इन दोनों का शेष वर्णन वैद्यकग्रन्थों में देखना चाहिये ॥ १९ जै० सं०
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com