Book Title: Jain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Author(s): Shreepalchandra Yati
Publisher: Pandurang Jawaji
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जैनसम्प्रदायशिक्षा ।
गर्भिणी स्त्री का चेहरा प्रफुल्लित होता है परन्तु बहुत सी स्त्रियां प्रायः दुर्बल भी हो जाया करती हैं, इत्यादि ।
प्रत्येक मास में गर्भस्थिति की दशा तथा उसकी संभाल |
स्थानांग सूत्रके पांचवें स्थान में कामसेवन का पांच प्रकार से होना कहा है. जिस का संक्षेप से वर्णन यह हैं:
१- पुरुष वा स्त्री अपने मन में काम भोग की इच्छा करे, इस का नाम मन:परिचारण है ।
२ - जिन शब्दों से कामविकार जागृत हो ऐसे शब्दों के द्वारा परस्पर वार्तालाप ( सम्भाषण ) करना, इस का नाम शब्दपरिचारण है ।
३ - परस्पर में राग जागृत हो ऐसी दृष्टि से एक दूसरे को देखना, इस का नाम रूपपरिचrरण है ।
४ - आलिङ्गन आदि के द्वारा केवल स्पर्श मात्रसे काम सेवन करना, इस का नाम स्पर्शपरिचारण है ।
५- एक शय्या ( चार पाई वा विस्तर) में सम्पूर्ण अङ्गों से अङ्गों को मिला कर कामभोग करना, इस का नाम कायपरिचारणा है ।
पांचवी विधि के स्थिति होती है,
अनुसार जब काम गर्भ की स्थिति का
नीचे दो नाड़ी एक
इन पांचों काम सेवन की विधियों मेंसे सेवन किया जाता है, तब स्त्री के गर्भ की स्थान एक कमलाकार नाड़ी विशेष है अर्थात् स्त्री की नाभि के दूसरी से सम्बद्ध हो कर कमल पुष्पके समान बनी हुई अधोमुख कमलाकार है, इसी में गर्भ की स्थिति होती है, इस नाड़ी के नीचे आमकी मांजर ( मञ्जरी ) के समान एक मांस का मांजर है तथा उस मांजर के नीचे योनि है, प्रतिमास जो स्त्री को ऋतुधर्म होता है वह इसी मांजर से लोहू गिर कर योनि के मार्ग से बाहर आता है ।
पहिले कह चुके हैं कि - ऋतुखान के पीछे चौथे दिन से लेकर बारह दिन तक गर्भ स्थिति का काल है, इस विषय में यह भी जान लेना आवश्यक है किकाय परिचारणा ( कामसेवन की पांचवीं विधि ) के द्वारा काम भोग करने के पीछे स्खलित हुए वीर्य और शोणित में कच्ची चौबीस घड़ी ( ९ घंटे तथा ३६ मिनट ) तक गर्भस्थिति की शक्ति रहती है, इस के पीछे वह शक्ति नहीं रहती है किन्तु फिर तो वह शक्ति तब ही उत्पन्न होगी कि जब पुनः दूसरी वार सम्भोग किया
जायगा ।
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