Book Title: Jain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Author(s): Shreepalchandra Yati
Publisher: Pandurang Jawaji
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जैनसम्प्रदायशिक्षा |
थे, देखो ! उपासकदशासूत्र में आनन्दश्रावक के बारह व्रतों के ग्रहण करने के अधिकार में यह वर्णन है कि आनन्दश्रावक ने एक क्षीरामल फल ( खीरा ककड़ी) को रखकर और सब वनस्पतियों का त्याग किया, इस वर्णन ने यह सिद्ध होता है कि- आनन्दश्रावक को इस विद्या की विज्ञता थी, क्योंकि उस
क्षीरामल फल को यही विचार कर खुला रक्खा था कि यदि एक भी उत्तम फल को मैं खुला न रक्खूंगा तो स्कर्वी ( रक्तपित्त ) का रोग हो जावेग और शरीर में रोग के होजाने से धर्मध्यानादि कुछ भी न बन सकेगा ।
परन्तु बड़े ही शोक का विषय है कि वर्तमान समय में हमारे बहुत से भोले जैन बन्धु एकदम मुक्ति में जाने के लिये बिलकुल ही वनस्पति की खुराक का त्याग कर देते हैं, जिस का फल उन को इसी भव में मिलजाता है कि ये वनस्पति की खुराक का बिलकुल त्याग करने से अनेक ( रोगों) में फँस जाते हैं तथापि वे ज़रा भी उन ( रोगों ) के कारणोंकी ओर ध्यान नहीं देते हैं ।
इस विद्या का यथार्थ ज्ञान होने से मनुष्य अपना कल्याण अच्छी तरह से कर सकता है, इस लिये सब जैन बन्धुओं को इस विद्या का ज्ञान कराने के लिये यहां पर संक्षेप से हम ने इस विषयको लिखा है, इस बात का निश्चय करने के लिये यदि प्रयत्न किया जावे तो सैकड़ों ऐसे प्रत्यक्ष उदाहरण मिल सकते हैं, जिन से यही सिद्ध होता है कि- वनस्पति की खुराक का बिलकुल त्याग कर देने से अनेक रोग उत्पन्न हो जाते हैं, देखो ! जिन लोगों ने एकदम वनस्पति की खुराक को बन्द कर दिया है उनकी गुदा और मुख से प्राय खून गिरने लगता है अर्थात् किसी २ के महीने में दो चार वार गिरता है और किसी २ के दो चार वार से भी अधिक गिरता है, तथा मुख में छाले आदि भी हो जाते हैं इत्यादि बातें जब आंखों से दीखती हैं तो उन के लिये दूसरे प्रमाण की क्या आवश्यकता है ।
क्रों का कथन है कि - उपयोग के लिये शाक और फल आदि उत्तम होने चाहियें चाहें वे थोड़े भी मिलें, और विचार कर देखने से यह बात विलकुल ठीक भी मालूम होती है, क्योंकि थोड़े भी शाक और फल आदि हों परन्तु उत्तम हों तो उन विशेष लाभ होता है, और बाज़ार में कई दिन तक पड़े रहने के कारण सूखे और सड़े हुए शाक और फल आदि चाहें अधिक भी हों तो भी उन से कुछ लाभ नहीं होता है किन्तु उन से अनेक प्रकार की हानियां ही होती हैं, तात्पर्य यह है कि हरी चीजों का बहुत ही सावधानी के साथ यमाशक्य थोड़ा ही उपयोग करना परन्तु उत्तमों का उपयोग करना बुद्धिमानों का काम है;
१ - इस ग्रन्थ का अनुवाद अंग्रेजी भाषा में भी छप चुका है ।। २-जैसा कि न्याय का सिद्धान्त है कि- "प्रत्यक्षे किं प्रमाणम्" अर्थात् प्रत्यक्ष में दूसरे प्रमाण की को आवश्यकता नहीं है ॥
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