Book Title: Jain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Author(s): Shreepalchandra Yati
Publisher: Pandurang Jawaji
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चतुर्थ अध्याय ।
१४९
बात
है कि - आरोग्यता के नियमों का जाननेवाला मनुष्य आरोग्यता के नियमों के अनुसार वर्ताव कर न केवल स्वयं उसका फल पाता है किन्तु अपने कुटुम्ब और समझ पड़ोसियों को भी आरोग्यतारूप फल दे सकता है ।
शरी संरक्षण का ज्ञान और उसके नियमों का पालन करना आदि बातों की शिक्षा सी बड़े स्कूल वा कॉलेज में ही प्राप्त हो सकती है यह बात नहीं है, i किन्तु मनुष्य के लिये घर और कुटुम्ब भी सामान्य ज्ञान की शिक्षा और आनुभविकी ( अनुभव से उत्पन्न होनेवाली ) विद्या सिखलाने के लिये एक पाठशाला ही है, क्योंकि अन्य पाठशाला और कॉलेजों में आवश्यक शिक्षा के प्राप्त करने के पश्चात् भी घर की पाठशाला का आवश्यक अभ्यास करना, समुचित नियमों का सीखना और उन्हीं के अनुसार वर्ताव करना आदि आवश्यक होता है, कुटुव के माता पिता आदि वृद्ध जन घर की पाठशाला के अध्यापक ( माष्टर) हैं. क्यों के कुलपरम्परा से आया हुआ दया धर्म से युक्त खान पान और विचारपूर्वक बाधा हुआ सदाचार आदि कई आवश्यक बातें मनुष्यों को उक्त अध्यापकों से ही प्राप्त होती हैं अर्थात् माता पिता आदि वृद्ध जन जैसा बर्ताव करते हैं उनके बालकभी प्रायः वैसा ही वर्त्तीव सीखते और उसी के अनुसार वर्ताव करते हैं, हां इस में भी प्रायः ऐसा होता है कि माता पिता के सदाचार आदि उनम गुणों को पुण्यवान् सुपुत्र ही सीखता है, क्योंकि - सात व्यसनों में से कई व्यसन और दुराचार आदि अवगुणोंको तो दूसरों की देखादेखी बिना कहे ही बहुतसे बुद्धिहीन सीख लेतेहैं, इस का कारण केवल यही है कि - मिथ्या मोहनी कर्म के संग इस जीवात्मा का अनादि कालका परिचय है और उसी के कारण भविष्यन् में भी ( आगामी को भी ) उस को अनेक कष्ट और आपत्तियां भोगनी हैं और फिर भी दुर्गति में तथा संसार में उस को भ्रमण करना है, इस लिये उस प्रकार की बुद्धि के द्वारा उसी तरफ और गुरु आदि की उत्तम सदाचार की सीखता है किन्तु बुरे आचरण में शीघ्र ही
वह कर्मोकी आनुपूर्वी उस प्राणी को कोबी है, इसी लिये माता पिता शिक्षा को वह मिखलाने पर भी नहीं चित्त लगाता है ।
ऊपर लिखे अनुसार कर्मवश ऐसा होता है तथापि माता पिताकी चतुराई और उन के सदाचार का कुछ न कुछ प्रभाव तो सन्तान पर पड़ता ही है, हां यह अवश्य होता है कि उस प्रभाव में कर्माधीन तारतम्य ( न्यूनाधिकता ) रहता है. इस के विरुद्ध जिस घर में माता पिता आदि कुटुम्ब के वृद्ध जन स्नान और दन्तधावन नहीं करते, कपड़े मैले पहनते, पानी विना छाने पीते और नशा पते हैं, इत्यादि अनेक कुत्सित रीतियों में प्रवृत्त रहते हैं तो उन के बालक
१-कलांकि मूर्ख पडोसी तो गंगाजल में रहनेवाली मछलीके समान समीपवर्ती योग्य पुरुष गुण को ही नहीं समझ सकता है ॥ २- सात व्यसनोंका वर्णन आगे किया जायगा ॥
के
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