Book Title: Jain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Author(s): Shreepalchandra Yati
Publisher: Pandurang Jawaji
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जैनसम्प्रदायशिक्षा।
गन्धरहित होना आदि पृथिवी की तासीर पर निर्भर है तथा आसपास के : दार्थों पर भी इस का कुछ आधार है, इस से यह बात सिद्ध होती है कि-आकाश के बादलों में से जो पानी बरसता है वह सर्वोत्तम और पीने के लायक है किन्तु पृथिवी पर गिरने के पीछे उस में अनेक प्रकार के पदार्थों का मिश्रण (मिळाव) होने से वह विगड़जाता है, यद्यपि पृथिवीपर का और आकाश का पानी एक ही है तथापि उस में भिन्न २ पदाथों के मिल जाने ले उस के गुण में अन्तर पड़ जाता है, देखो! प्रतिवर्ष वृष्टि का बहुतसा पानी पृथ्वीपर गिरता है तथा धि: पर गिरा हुआ वह पानी बहुत सी नदियों के द्वारा समुद्रोंमें जाताहै और ऐसा होनेपर भी वे समुद्र न तो भरते हैं और न छलकते ही हैं, इस का कारण सिर्प. यही है कि जैसे पृथिवीपर का पानी समुद्रों में जाता है उसी प्रकार समुद्रों का पानी भी सूक्ष्म परमाणु रूप अर्थात् भाफ रूप में हो कर फिर आकाश में जाता और वही(भाफ बदल बन कर पुनः जल बर्फ अथवा ओले और धुंअर के रूप में हो जाती है, तालाव कुओं और नदियों का पानी भी भाफ रूपमें होकर ऊँचा - इता है किन्तु खास कर उष्ण ऋतु में पानी में से वह भाफ अधिक बन कर बहुत ही ऊँची चड़नी है. इसलिये उक्त का में जलाशयों में पानी बहुत ही कम हो जाता है अथवा बिलकुल ही सूख जाता है।
जब वृष्टि होती है तब उस ( वृष्टि) का बहुत सा पानी नदियों तथा तलावों में जाता है और बहुत सा पानी पृथिवी पर ही ठहर कर आस पाल की पृथिवी को गीली कर देता है, केवल इतना ही नहीं किन्तु उस पृथिवी के समीप स्थित कुएँ और झरने आदि भी उस पानी से पोपण पाते हैं । __जहां ठंढ अधिक पड़ती है वहां वसांत का पहिला पानी बर्फ रूप में जम जाता है तथा गर्मी की ऋतु में वह बर्फ पिघल कर नदियों के प्रवाह में बहने लगती है, इसी लिये गङ्गा आदि नदियों में चौमासे में खूब पूर (बाढ़ ) आती है तः । उस समय में तालाव और कुँओं का भी पानी ऊँचा रहता है तथा ग्रीस में न हो जाता है, इस प्रकार से पानी के कई रूपान्तर होते हैं।
वरसात का पानी नदियों के मार्ग से समुद्र में जाता है और वहां से भ क रूप में होकर ऊँचा चढ़ता है तथा फिर वही पानी बरसात रूप में हो कर पृथिो पर बरसता है बस यही क्रम संसार में अनादि और अनन्त रूप से सदा होता रहता है।
पानी के यद्यपि सामान्यतया अनेक भेद माने गये हैं तथापि मुख्प भेद तो दो ही हैं अर्थात् अन्तरिक्षजल और भूमिजल, इन दोनों भेदों का अव संक्षेप से वर्णन किया जाता है:
१-वृष्टि किस २ प्रकार से होती है इस का वर्णन श्रीभगवतीमृत्रमें किया है, वहां यह भी निरूण है कि-जल की उत्पत्ति, स्थिति और नाश का ओ प्रकार है वही प्रकार सब इ और वेतन पदार्थों का जान लेना चाहिये, क्योंकि द्रव्य नित्य है तथा गुण भी नित्य है परन् । पर्याय अरय है।॥ २-देखो! "जीवविचार प्रकरण” में हवा तथा पानी के अनेक भेद लिखे।
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