Book Title: Jain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Author(s): Shreepalchandra Yati
Publisher: Pandurang Jawaji
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जैनसम्प्रदायशिक्षा |
कोई कार्य न करे, केवल एकान्त में बैठी रहे, शरीरका श्रृंगार आदि न करे किन्तु जब रज निकलना बंद हो जावे तब स्नान करे इसी को ऋतु स्नान कहते हैं ।
यह भी स्मरण रहना चाहिये कि ऋतुस्नान के पीछे स्त्री जिस पुरुष का दर्शन करेगी उसी पुरुष के समान पुत्र की आकृति होगी, इस लिये स्त्री को योग्य है कि ऋतुस्नान के अनन्तर अपने पति पुत्र अथवा उत्तम आकृतिवाले अन्य किसी सम्बंधी पुरुष को देखे, यदि किसी कारण से इन का देखना संभव न हो तो अपनी ही आकृति (सूरत) को ( यदि उत्तम हो तो ) दर्पण में देख ले, अथवा किसी उत्तम आकृतिमान् तथा गुणवान् पुरुष की तस्वीर को मंगा कर देख ले तथा उन की सूरत का चित्त में ध्यान भी करती रहे क्योंकि जिस का चित्त में वारंवार ध्यान रहेगा उसी का बहुत प्रभाव सन्तान पर होगा इस लिये पुरुष का दर्शन कर उसका ध्यान भी करती रहे कि जिस से उत्तम मनोहर पुत्र और पुत्री उत्पन्न हों ।
जिस प्रकार से स्त्रीप्रसंग में पहिली चार रात्रियों का त्याग है उसी प्रकार ग्यारहवीं तेरहवीं रात्रि तथा अष्टमी पूर्णमासी और अमावास्या का भी निषेध किया गया है, इन से शेष रात्रियों में स्त्री प्रसंग की आज्ञा है तथा उन शेष रात्रियों में भी यह शास्त्रीय ( शास्त्रका ) सिद्धान्त है कि-समरात्रियों में अर्थात् ६, ८, १०, १२, १४, और १६ में स्त्रीप्रसंगद्वारा गर्भ रहने से पुत्र तथा विषम रात्रियों में अर्थात् ७, ९, ११, १३ और १५ में गर्भ रहने से पुत्री उत्पन्न होती है. क्योंकि - सम रात्रियों में पुरुष के वीर्य की तथा विषम रात्रियों में स्त्री के रज की अधिकता होती है, मुख्य तात्पर्य यह है कि मनुष्य का वीर्य अधिक होने से लड़का, कम होने से लड़की और दोनों का वीर्य और रज बराबर होने से नपुंसक होता है तथा दोनों का वीर्य और रज कम होने से गर्भ ही नहीं रहती है ।
पुत्र और पुत्री की इच्छावाला पुरुष ऊपर कही हुई रात्रियों में नियमानुसार केवल एकवार स्त्रीप्रसंग करे परन्तु दिन में इस क्रिया को कदापि न करे क्योंकि दिन में प्रकाश तेज और गर्मी अधिक होती है तथा मैथुन करते समय और भी गर्मी शरीर से निकलती है इस लिये इस दो प्रकार की उष्णता से शरीर को बहुत हानि पहुंचती है और कभी २ यहां तक हानि की सम्भावना हो जाती है किअति उष्णता के कारण प्राणों का निकलना भी सम्भव हो जाता है, इस लियेरात्रिमें ही स्त्रीप्रसंग करना चाहिये किन्तु रात्रि में भी दीपक तथा लेम्प आदि जलाकर तथा उन को निकट रख कर स्त्रीप्रसंग नहीं करना चाहिये - क्योंकि इस से भी पूर्वोक्त हानि की ही सम्भावना रहती है ।
रात्रि में दश वा ग्यारह बजे पर स्त्रीप्रसंग करना उचित है क्योंकि इस क्रिया का ठीक समय यही है, जब वीर्य पात का समय निकट आवे उस समय दो
को
१ - इस सर्व विषय का यदि विशेष वर्णन देखना हो तो भावप्रकाश आदि वैद्यक देखो ||
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