Book Title: Jain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Author(s): Shreepalchandra Yati
Publisher: Pandurang Jawaji
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तृतीय अध्याय
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( स्त्रीपुरुष ) सम हो जावें अर्थात् ठीक नाक के सामने नाक, मुंहके सामने मुंह, इसी प्रकार शरीर के सब अंग समान रहें ।
श्रीप्रसंग के समय स्त्री तथा पुरुष के चित्त में किसी बात की चिन्ता नहीं रहनी चाहिये तथा इस क्रिया के पीछे शीघ्र नहीं उठना चाहिये किन्तु थोड़ी देरतक लेटे रहना चाहिये और इस कार्य के थोड़े समय के पीछे गर्मकर शीतल किये हुए दूध में मिश्री डालकर दोनों को पीना चाहिये क्योंकि दूधके पीने से थकावट जाती रहती है और जितना रज तथा वीर्य निकलता है उतना ही और बन जात है तथा ऐसा करनेसे किसी प्रकार का शारीरिक विकार भी नहीं होने पाता है ।
इस कार्य के कर्त्ता यदि प्रातः काल शरीर पर उबटन लगा कर स्नान करें तथा खीर. मिश्री सहित दूध और भात खावें तो अति लाभदायक होता है ।
इस प्रकार से सर्वदा ऋतु के समय नियमित रात्रियों में विधिवत् स्त्रीप्रसंग करना चाहिये किन्तु निषिद्ध रात्रियों में तथा ऋतुधर्म से लेकर सोलह रात्रियों के पश्चात् की रात्रियों स्त्रीप्रसंग कदापि नहीं करना चाहिये क्योंकि धर्मग्रन्थों में लिखा है कि जो मनुष्य अपनी स्त्री से ऋतु के समय में नियमानुसार प्रसंग करता है व गृहस्थ होकर भी ब्रह्मचारी के समान है ।
गर्भिणी स्त्री के वर्तावका वर्णन |
सी के जिस दिन गर्भ रहता है उस दिन शरीर में निम्नलिखित चिन्ह प्रतीत होते हैं:
जैसे बहुत श्रम करने से शरीर में थकावट आ जाती है उसी प्रकार की थकावट मालूम होने लगती है, शरीर में ग्लानि होती है, तृपा अधिक लगती है, पैरों
१ स्मरण रखना चाहिये कि सन्तान का उत्तम और बलिष्ठ होना पति पत्नी के भोजन पर ही निर्भर है इस लिये स्त्री पुरुषको चाहिये कि अपने आत्मा तथा शरीर की पुष्टि के लिये बल और बुद्धि बढ़ानेवाले उत्तम औषध और नियमानुसार उत्तम २ भोजनों का सेवन करें, भोजन आदि के विषय में इसी ग्रन्थ के चौथे अध्याय में वर्णन किया गया है वहां देखें ॥ २ - सर्व शास्त्र का यह सिद्धान्त है कि स्त्री गर्भसमय में अपना जैसा आचरण रखती है - उन्हीं लक्षणों से युद्ध सन्तान भी उस के उत्पन्न होता है - इसलिये यहां पर संक्षेप से गर्भिणी स्त्री के बर्ताव का कुछ वर्णन किया जाता है आशा है कि स्त्रीगण इस से यथोचित लाभ प्राप्त कर सकेंगी । ३- जैगा कि लिखा है कि-स्तनयोर्मुसकाण्यं स्याद्रोमराज्युङ्गमस्तथा ॥ अक्षिपक्ष्माणि चाप्यस्याः सम्मी यन्ते विशेषतः ॥ १ ॥ छर्दयेत् पथ्यं भुक्त्वापि गन्धादुद्विजते शुभात् ॥ प्रसेकः सदनं चैवगर्भिण्या लिङ्गमुच्यते ॥ २ ॥ अर्थात् दोनों स्तनोंका अग्रभाग काला हो जाता है, रोमाञ्च होता है, अखों के पलक अत्यन्त चिमटने लगते हैं ॥ १ ॥ पथ्य भोजन करने पर भी छर्दि ( वमन ) हो जाता है शुभ गन्ध से भी भय लगता है मुख से पानी गिरता है तथा अंगों में थकावट मालूम होती है ॥ २ ॥ ये लक्षण जो लिखे हैं ये गर्भरहने के पश्चात् के हैं किन्तु गर्भरहने के तत्काल तो वही चिन्ह होते हैं जो कि ऊपर लिखे हैं |
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