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भगवती सूत्र-श. ३ उ. १ ईशानेन्द्र का पूर्व भव
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तामली गहपति भोजन मण्डप में आकर उत्तम आसन पर सुखपूर्वक बैठा । इसके बाद मित्र, ज्ञातिजन, स्वजन, सगेसम्बन्धी और दास दासी के साथ उस चारों प्रकार के आहार का स्वाद लेता हुआ, विशेष स्वाद लेता हुआ परस्पर देता हुआ अर्थात् जीमाता हुआ और स्वयं जीमता हुआ वह तामली गृहपति विचरने लगा। जीमने के पश्चात् उसने हाथ धोये और चुल्लु किया । अर्थात् . मुख साफ करके शुद्ध हुआ। फिर उन सब स्वजन सम्बन्धी आदि का वस्त्र, सुगंधित पदार्थ और माला आदि से सत्कार सम्मान करके उनके समक्ष अपने ज्येष्ठ पुत्र को 'कुटुम्ब में स्थापित किया अर्थात् कुटुम्ब का भार संभलाया । फिर उन सब स्वजनादि को और ज्येष्ठ पुत्र को पूछकर, उस तामली गृहपति ने मुण्डित होकर 'प्राणामा' नाम की प्रव्रज्या अंगीकार को।
पव्वइए वि य णं समाणे इमं एयारूवं अभिग्गहं अभिगिण्हइ;'कप्पइ मे जावजीवाए छटुंछटेणं, जाव-आहारित्तए त्ति कटु' इमं एयारूवं अभिग्गहं अभिगिण्हइ, अभिगिण्हित्ता जावजीवाए छटुं. छटेणं अणिखितेणं तवोकम्मेणं उड्ढे बाहाओ पगिझिय पगिज्झिय सूराभिमूहे आयावणभूमीए आयावेमाणे विहरइ, छटुस्स, वि य णं पारणयंसि आयावणभूमीओ पचोरुहइ पच्चोरुहिता सयमेव दारुमयं पडिग्गहं गहाय तामलित्तीए णयरीए उच्च-णीयमज्झिमाइं कुलाई घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए अडइ, अडित्ता सुद्धोयणं पडिग्गाहइ, तिसत्तक्खुत्तो उदएणं पक्खालेइ, तओ पच्छा आहारं आहारे।।
१८ प्रश्न-से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ पाणामा पव्वजा ?
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