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-श. ३ उ. २ चमरेन्द्र का उत्पात
उसने अपनी मुट्ठी को इतनी तेजी से बन्द किया कि मुट्ठी की वायु से मेरे केशान हिलने लग गये । इसके बाद देवेन्द्र देवराज शक्र ने वज्र को लेकर मेरी तीन बार प्रदक्षिणा की और मुझे वन्दना नमस्कार कर के इस प्रकार कहा कि-"हे भगवन् ! आपका आश्रय लेकर असुरेन्द्र असुरराज चमर मुझे मेरी शोभा से भ्रष्ट करने के लिए आया था। इससे कुपित होकर मैंने उसे मारने के लिए वज्र फैका । इसके बाद मुझे इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ कि असुरेन्द्र असुरराज चमर स्वयं अपनी शक्ति से इतना ऊपर नहीं आ सकता है।" (इत्यादि कह कर शक्रेन्द्र ने पूर्वोक्त सारी बात कह सुनाई) ।
फिर शकेन्द्र ने कहा कि-हे भगवन् ! फिर अवधिज्ञान के द्वारा मैंने आपको देखा । आपको देखते ही मेरे मुख से ये शब्द निकल पडे कि-"हा ! हा !! मैं मारा गया"-"ऐसा विचार कर उत्कृष्ट दिव्य देवगति द्वारा जहां आप देवानुप्रिय बिराजते हैं, वहां आया और आप से चार अंगुल दूर रहे हुए वज्र को पकड़ लिया। वज्र को लेने के लिए में यहाँ आया हूँ, समवसृत हुआ हूँ, सम्प्राप्त हुआ हूँ, उपसम्पन्न होकर विचरण कर रहा हूँ। हे भगवन् ! मैं अपने अपराध के लिए क्षमा मांगता हूँ। आप क्षमा करें। आप क्षमा करने के योग्य हैं। मैं ऐसा अपराध फिर नहीं करूँगा।" ऐसा कह कर मुझे वन्दना नमस्कार करके शकेन्द्र उत्तरपूर्व के दिग्विभाग (ईशानकोण) में चला गया। वहां जाकर शकेन्द्र ने अपने बाँए पैर से तीन बार भूमि को पीटा। फिर उसने असुरेन्द्र असुरराज चमर को इस प्रकार कहा-“हे असुरेन्द्र असुरराज चमर ! तू आज श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के प्रभाव से बच गया है । अब तुझे मेरे से जरा भी भय नहीं है।" ऐसा कह कर वह शक्रेन्द्र जिस दिशा से आया था, उसी दिशा में वापिस चला गया।
विवेचन-आक्रोश प्रकट करके चमरेन्द्र, शक्रेन्द्र को अपनी शोभा से भ्रष्ट करने के लिए ऊपर सौधर्म देवलोक में गया। वहाँ शक्रेन्द्र ने उस पर अपना वज्र छोड़ा। चमरेन्द्र तीव्र गति से दौड़ कर नीचे आया और भगवान् के चरणों के बीच में छिप गया। अपने वज्र को लेने के लिए शकेन्द्र वहाँ आया । वहाँ आकर भगवान् को वन्दना नमस्कार करके
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