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भगवती सूत्र-शं. ६ उ. १० नैरयिकादि का आहार
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नरयिकादि का आहार
११ प्रश्न-णेरड्या णं भंते ! जे पोग्गले अत्तमायाए आहारेवि ते किं आयसरीरखेत्तोगाढे पोग्गले अत्तमायाए आहारेंति, अणंतरखेतोगाढे पोग्गले अत्तमायाए आहारेंति, परंपरखेत्तोगाढे पोग्गले अत्तमायाए आहारेंति ? . ११ उत्तर-गोयमा ! आयसरीरखेत्तोगाढे पोग्गले अत्तमायाए आहारेंति, णो अणंतरखेत्तोगमढे पोग्गले अत्तमायाए आहारेंति, णो परंपरखेतोगाढे; जहा णेरड्या तहा जाव-वेमाणियाणं दंडओ।
कठिन शब्दार्थ-अत्तमायाए-आत्मा द्वारा।
भावार्थ-११ प्रश्न-हे भगवन् ! नरयिक जीव, आत्मा द्वारा ग्रहण करके जिन पुद्गलों का आहार करते हैं, क्या वे आत्मशरीरक्षेत्रावगाढ पुद्गलों को आत्मा द्वारा ग्रहण करके आहार करते हैं ? या अनन्तरक्षेत्रावगाढ पुद्गलों को आत्मा द्वारा ग्रहण करके आहार करते हैं ? या परम्परक्षेत्रावगाढ पुद्गलों को आत्मा द्वारा ग्रहण करके आहार करते हैं ?
११ उत्तर-हे गौतम! आत्म-शरीर-क्षेत्रावगाढ पुद्गलों को आत्मा द्वारा ग्रहण करके आहार करते हैं, परन्तु अनन्तरक्षेत्रावगाढ और परम्परक्षेत्रावगाढ पुद्गलों को आत्मा द्वारा ग्रहण करके आहार नहीं करते। जिस प्रकार नरयिकों के लिये कहा, उसी प्रकार यावत् वैमानिक पर्यन्त सभी दण्डकों में कहना चाहिये।
विवेचन-जीव के सम्बन्ध में ही कहा जाता है। जीव स्व-शरीर क्षेत्र में रहे हुए पुद्गलों को आत्मा द्वारा ग्रहण करके आहार करता है, किन्तु आत्म. शरीर से अनन्तर और परम्पर क्षेत्र अर्थात् आत्मा क्षेत्र से अनन्तर क्षेत्र से परक्षेत्र में रहे हुए पुद्गलों को आत्मा द्वारा ग्रहण करके आहार नहीं करता है।
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