Book Title: Bhagvati Sutra Part 02
Author(s): Ghevarchand Banthiya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 543
________________ १०६० भगवती सूत्र - श. ६ उ. ९ महद्धिक देव और विकुर्वणा बंध उद्देशक (पद) कहना चाहिये । विवेचन-आठवें उद्देशक के अन्त में यह कहा गया था कि सभी प्राण, भूत, जीव ओर सत्त्व, द्वीप-समुद्रों में अनेक बार अथवा अनन्तबार पहले उत्पन्न हो चुके हैं । जीवों का भिन्न-भिन्न गतियों में उत्पन्न होने का कारण उनका कर्म बन्ध है । इसलिये इस नववें उद्देशक में कर्मबन्ध के विषय में कथन किया जाता है । जिस समय जीव का आयुष्यबन्ध काल नहीं होता है, तब वह सात कर्म प्रकृतियों को बाँधता है । आयुष्य के बन्ध-काल में आठ कर्म प्रकृतियों को बांधता है । सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान की अवस्था में मोहनीय कर्म और आयुष्य कर्म को नहीं बांधता है, इसलिये ज्ञानावरणीय कर्म बांधता हुआ जीव, छह कर्म प्रकृतियों को बांधता है। इस विषय में प्रज्ञापनासूत्र के चौबीसवें पद में आये हुए बंध वर्णन में जिस प्रकार कथन किया है, उस प्रकार यहां भी सारा कथन करना चाहिये। महद्धिक वेव और विकर्वणा २ प्रश्न-देवे णं भंते ! महिड्ढीए, जाव-महाणुभागे बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता पभू एगवण्णं, एगरूवं विउवित्तए ? २ उत्तर-गोयमा ! णो इणटे समटे । ३ प्रश्न-देवे णं भंते ! बाहिरए पोग्गले परियाइत्ता पभू ? ३ उत्तर-हंता, पभू ! ४ प्रश्न-से णं भंते ! कि इहगए पोग्गले परियाइत्ता विउब्बइ, तत्थगए पोग्गले परियाइत्ता विउव्वइ, अण्णस्थगए पोग्गले परियाइत्ता विउव्वइ ? ४ उत्तर-गोयमा ! णो इहगए पोग्गले परियाइत्ता विउव्वइ, तत्थगए पोग्मले परियाइत्ता विउव्वइ, णो अण्णत्थगए पोग्गले Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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