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भगवती सूप-श. ६ ७.१० जीव और प्राण
जीव कहलाता है और जो जीव होता है, वह प्राग धारण करता भी है और नहीं भी करता है। ____७ प्रश्न-हे भगवन् ! जो जीता है, वह नरयिक कहलाता है, या जो नरयिक होता है, वह जीता है-प्राण धारण करता है ? . ७ उत्तर-हे गौतम ! नरयिक तो नियमा जीता है, किन्तु जो जीता है वह नैयिक भी होता हैं और अनेरयिक भी होता है । इस प्रकार यावत् वैमानिक तक सभी दण्डक कहने चाहिये ।
८ प्रश्न-हे भगवन् ! जो भवसिद्धिक है, वह नरयिक होता है, या जो नरयिक होता है, वह भवसिद्धिक होता है ?
८ उत्तर-हे गौतम ! जो भवसिद्धिक होता है, वह नरयिक भी होता हैं मोर अनेरयिक भी होता है। तया जो नरयिक होता है, वह भवसिद्धिक भी होता हैं और अमवसिद्धिक भी होता है । इस प्रकार यावत् वैमानिक पर्यन्त सभी दण्डक कहने चाहिये।
विवेचन-जीव का अधिकार होने से जीवों के विषय में ही कथन किया जाता है। यहाँ तीसरे प्रश्न में दो बार जीव शब्द का प्रयोग हुआ है। उनमें से एक जीव शब्द का अर्थ 'जीव' है और दूसरे जीव शब्द का अर्थ चैतन्य' है। इसका उत्तर स्पष्ट है कि जो जीव है, वह चैतन्य रूप है और जो चैतन्य रूप है, वह जीव है । क्योंकि जीव और चैतन्य में परस्पर अविनामाव सम्बन्ध है।
जो नैरयिक है, वह तो नियम से जीव है ही, किन्तु जो जीव है, वह नरयिक भी होता है और अनरयिक भी होता है । जो प्राणों को धारण करता है, वह नियम से जीव है, क्योंकि अजीव के आयुष्य कर्म न होने से वह प्राणों को धारण नहीं करता । जो जीव है, वह कदाचित् प्राणों को धारण करता है और कदाचित् प्राणों को धारण नहीं करता है, क्योंकि सिद्ध भगवान जीव तो हैं, किन्तु प्राणों को (द्रव्य प्राणों को) धारण नहीं करते हैं। नरयिकादि सभी जीव, नियमा प्राणों को धारण करते हैं । क्योंकि सभी संसारी जीवों का स्वभाव प्राण धारण करने का है, किन्तु जो प्राण धारण करता है, वह नरयिक भी होता है और अनरयिक भी होता है । क्योंकि नरयिक और अनैरयिक सभी संसारी जीव, प्राणों को धारण करते हैं।
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