Book Title: Bhagvati Sutra Part 02
Author(s): Ghevarchand Banthiya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 541
________________ १०५८ भगवती सूत्र-श. ६ उ. ८ असंख्य द्वीप समुद्र गये हैं। २० प्रश्न-हे भगवन् ! द्वीपों और समुद्रों के कितने नाम कहे गये हैं ? २० उत्तर-हे गौतम ! इस लोक में जितने शुभ नाम हैं, शुभ रूप, शुभ गन्ध, शुभ रस और शुभ स्पर्श हैं, उतने ही द्वीप और समुद्रों के नाम कहे गये हैं। इस प्रकार सब द्वीप समुद्र शुभ नाम वाले हैं। उद्धार परिणाम और सब जीवों का उत्पाद कहना चाहिए । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । ऐसा कह कर यावत् विचरते हैं। विवेचन-पहले प्रकरण में जीवों के स्वधर्म का कथन किया गया है। अब स्वधर्म से लवणसमुद्र का कथन किया जाता है । लवण समुद्र उच्छ्रितोदक है, क्योंकि सोलह हजार योजन से कुछ अधिक उसकी जलवृद्धि ऊपर को होती है । इसीलिए वह प्रस्तृतोदक अर्थात् सम जल वाला नहीं है। महापाताल कलशों में रही हुई वायु के क्षोम से लवणसमुद्र में वेला आती है । इसीलिए लवणसमुद्र का पानी क्षुब्ध होता है। इससे आग का वर्णन जिस प्रकार जीवाभिगम सूत्र में कहा है, उस तरह से कहना चाहिए । अढ़ाई द्वीप दो समुद्रों से बाहर के समुद्र उच्छ्रितोदक अर्थात् उछलते हुए पानी वाले नहीं हैं, किन्तु सम जल वाले हैं। वे क्षुब्ध जल वाले नहीं, किन्तु अक्षुब्ध जल वाले हैं। वे पूर्ण, पूर्ण प्रमाण वाले, यावत् पूर्ण भरे हुए घड़े के समान सम हैं । लवणसमुद्र में महामेघ संस्वेदित होते हैं, सम्मूच्छित होते हैं और वर्षा बरसाते हैं, किन्तु बाहर के समुद्रों में महामेघ संस्वेदित नहीं होते हैं, सम्मूच्छित नहीं होते हैं, वर्षा नहीं बरसाते हैं। बाहर के समुद्रों में बहुत से उदक योनि जीव और पुद्गल, उदकपने अपक्रमते हैं, व्युत्क्रमते हैं, चवते हैं और उत्पन्न होते हैं। इन सब समुद्रों का संस्थान एक सरीखा है, किन्तु विस्तार की अपेक्षा दुगने दुगने होते गय हैं। ये समुद्र उत्पल, पद्म, कुमुद, नलिन, सुन्दर और सुगन्धित पुण्डरीक महा-पुण्डरीक, शतपत्र, सहस्रपत्र, केशर एवं विकसित पदों आदि द्वारा युक्त हैं । स्वस्तिक श्रीवत्स आदि सुन्दर शब्द शक्ल, पीत आदि सुन्दर रूपों के सूचक शब्द अथवा देवादि के सुन्दरं रूपों के सूचक शब्द, सुरभिगन्ध वाचक शब्द अथवा कपूर आदि पदार्थों के वाचक शब्द, मधर रस वाचक शब्द, मृदु स्पर्श वाले नवनीत (मक्खन) आदि पदार्थों के वाचक शब्द जितने इस संसार में हैं, उतने ही शुभ नामों वाले दीप और समुद्र हैं। इन द्वीप और Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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