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भगवती सूत्र-श. ५ उ. ९ देवलोक
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का क्षय करके मोक्ष को प्राप्त हुए और कितने ही स्थविर, अल्ल कर्मरज के शेष रह जाने से देवलोकों में उत्पन्न हुए।
भरत क्षेत्र और एरावत क्षेत्र के चौवीस तीर्थंकरों में से प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर के सिवाय बीच के बाईस तीर्थङ्करों के शासन में और महाविदेह क्षेत्र में चतुर्याम धर्म होता है । अर्थात् सवया प्राणातिपात, मषावाद, अदतादान और बहिर्द्धादान का त्याग किया जाता है । बहिर्द्धादान में मैथुन और परिग्रह दोनों का समावेश हो जाता है । प्रथम और अन्तिम तीर्थङ्कर के समय पंच महाव्रत रूप धर्म होता है अर्थात् सर्वथा प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्ता
दान, मथुन और परिग्रह का त्याग रूप पांच महाव्रत होते हैं । चतुर्याम धर्म और पंच महा- व्रत रूप धर्म में केवल शाब्दिक भेद है । अर्थ में कुछ भी भेद नहीं है । क्योंकि बहिर्द्धादान में मैथुन और परिग्रह दोनों का समावेश है । और पांच महाव्रतों में इन दोनों का अलग अलग कथन कर दिया है । इससे ऐसा,नहीं समझना चाहिये कि तेवीसवें तीर्थङ्कर भगवान् पाश्वनाथ के शासन में प्रचलित चतुर्याम धर्म में चौवीसवें तीर्थङ्कर भगवान महावीर स्वामी ने परिवर्तन करके पंच महाव्रत रूप धर्म स्थापित किया था । प्रतिक्रमण के विषय में टीकाकार ने एक गाथा दी है । वह इस प्रकार है
सपडिक्कमणो धम्मो, पुरिमस्स य पच्छिमस्स य जिणस्स ।
मज्झिमगाणं जिणाणं, कारणजाए पडिक्कमणं ॥ अर्थ-प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर का धर्म सप्रतिक्रमण (प्रतिक्रमण सहित) है । और बीच के बाईस तीर्थंकरों के शासन में और महाविदह क्षेत्र के तीर्थंकरों के शासन में कारण होने पर प्रतिक्रमण है।
___ इसका आशय यह है कि प्रथम और अन्तिम तीर्थकर के शासनवर्ती साधुओं को तो नियमित रूप से प्रतिदिन सुबह और शाम को प्रतिक्रमण करना ही चाहिये । यह उनके लिये आवश्यक कल्प है । शेष तीर्थंकरों के शासनवर्ती साधुओं को कारण होने पर (किसी प्रकार का दोष लगने पर) प्रतिक्रमण अवश्य करना चाहिये । अन्य समय में उनके लिये यह आवश्यक कल्प नहीं है । अर्थात् विहित कल्प भी नहीं है और निषिद्ध कल्प भी नहीं है।
देवलोक
१७ प्रश्न-कहविहा णं भंते ! देवलोगा पण्णता ? .
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