Book Title: Bhagvati Sutra Part 02
Author(s): Ghevarchand Banthiya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 526
________________ भगवती सूत्र-श. ६ उ. ७ सुषमसुषमा काल १०४३ गंधा, अममा, तेयली, सहा, सर्णिचारी। ॐ सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति । ॐ ॥ छट्ठसए सत्तमो उद्देसो सम्मत्तो॥ कठिन शब्दार्थ--उत्तमट्ठपत्ताए-उत्तम अर्थ को प्राप्त, आयारभावपडोयारेआकार मात्र प्रत्यवतार-आविर्भाव, आलिंगपुक्खरे--आलिंग पुष्कर-तबले के मुख के पट के समान, आसयंति--बैठते हैं, सयंति-सोते हैं, उद्दाला-वृक्ष विशेष, अणुसज्जित्थापूर्वकाल से चला आया हुआ। भावार्थ-७. प्रश्न-हे भगवन् ! इस जम्बूद्वीप नामक द्वीप में उत्तमार्थ प्राप्त इस अवसर्पिणी काल में सुषमसुषमा नामक आरे में भरतक्षेत्र के किस प्रकार के आकार भाव प्रत्यवतार अर्थात् आकारों का और पदार्थों का आविर्भाव था? ७ उत्तर-हे गौतम ! भमिभाग बहुत सम होने से अत्यन्त रमणीय था। जैसे कि-मरज अर्थात् तबले का मुखपट हो वैसा बहुसम भरतक्षेत्र का भूमि भाग था। इस प्रकार उस समय के भरतक्षेत्र के लिए उत्तरकुरू की वक्तव्यता के समान वक्तव्यता कहनी चाहिए, यावत् बैठते हैं, सोते हैं। उस काल में भरतक्षेत्र के उन उन देशों के उन उन स्थलों में उद्दालक यावत् कुश और विकुश से विशुद्ध वृक्षमूल थे, यावत् छह प्रकार के मनुष्य थे। यथा-१ पम गन्ध-पद्म के समान गन्ध वाले, २ मृग गन्ध-कस्तूरी के समान गन्ध वाले, ३ अमस-ममत्व रहित, ४ तेजस्तलो अर्थात् तेजस्वी और रूपवान्, ५ सहा-सहनशील, ६ शनैश्चर अर्थात् उत्सुकता रहित होने से मन्द मन्द (धीरे धीरे) गति करने वाले-गज गति वाले। इस तरह छह प्रकार के मनुष्य थे। - हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। ऐसा कहकर यावत् गौतमस्वामी विचरते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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