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भगवती सूत्र - ६ उ. ४ जीव और प्रत्याख्यान
ही भंग पाया जाना चाहिये, परन्तु यह बात नहीं है, क्योंकि मूलपाठ में यहाँ जीवादि में तीन भंग कहे गये हैं । तात्पर्य यह है कि जिन जीवों को जन्म से भाषा और मन की योग्यता तो हो, परन्तु उसकी मिद्धि न हुई हो, वे हा जीव यहाँ भाषा मन अपर्याप्ति से अपर्याप्त क गये हैं । इन जीवों में और पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चों में भाषा मन अपर्याप्त को प्राप्त बहुत जीव पाये जाते हैं और इसकी अपर्याप्ति को प्राप्त होते हुए एकादि जीव ही पाये जाते हैं । इसलिये उनमें पूर्वोक्त तीन भंग ही पाये जाते हैं। नरयिकादि में भाषा मन अपर्याप्तकों की अल्पतरता होने से वे एकादि सप्रदेश और अप्रदेश पाये जाते हैं । उनमें पूर्वोक्त छह भंग पाये जाते हैं । इन पर्याप्ति और अपर्याप्ति के दण्डकों में सिद्ध पद नहीं कहना चाहिये । क्योंकि उनमें पर्याप्त अपर्याप्त नहीं होती ।
ऊपर चौदह द्वारों को लेकर सप्रदेश और अप्रदेश का विचार किया गया है । इन चौदह द्वारों को संगृहीत करने वाली संग्रह गाथा और उसका अर्थ ऊपर भावार्थ में दिया गया है ।
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जीव और प्रत्याख्यान
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६ प्रश्न – जीवा णं भंते ! किं पच्चक्खाणी, अपचक्खाणी पचक्खाणापचक्खाणी ?
६ उत्तर - गोयमा ! जीवा पञ्चक्खाणी वि, अपञ्चकखाणी वि. पचक्खाणापच्चक्खाणी व ।
७ प्रश्न - सव्वजीवाणं एवं पुच्छा ?
७ उत्तर - गोयमा ! णेरइया अपच्चक्खाणी जाव - चउरिंदिया, सेसा दो पडिसेहेयव्वा, पंचिंद्वियतिरिक्खजोणिया णो पच्चक्खाणी, अपच्चक्खाणी वि, पञ्चक्खाणापच्चक्खाणी वि, मणुस्सा तिष्णि
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