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भगवती सूत्र श. ६ उ. ५ लोकान्तिक देव
४५ उत्तरर - हे गौतम ! लोकान्तिक विमानों से असंख्य हजार योजन की दूरी पर लोकान्त है ।
हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । ऐसा कह कर यावत् गौतम स्वामी विचरते हैं ।
विवेचन - लोकान्तिक देवों के अचि आदि नो विमान हैं। पूर्व और उत्तर के बीच में अर्चि विमान है। पूर्व में अनिमाली विमान है। इसी क्रम से शेष विमान भी हैं । नववाँ रिष्टाभ विमान कृष्णराजियों के बीच में है । इन देवों का परिवार ऊपर बताया गया है। सारस्वत और आदित्य आदि दो दो युगलों का परिवार शामिल है और अव्याबाध, आग्नेय और रिष्ट, इन तीन देवों का परिवार शामिल है ।
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ये देव ब्रह्मलोक नामक पांचवें देवलषेक के पास रहते हैं, इसलिए इन्हें लोकान्तिक कहते हैं । अथवा ये उदयभाव रूप लोक के अन्त में रहे हुए हैं, क्योंकि ये सब स्वामी देव एक भवावतारी ( एक भव के बाद मोक्ष जाने वाले ) होते हैं, इसलिए इन्हें लोकान्तिक कहते हैं । इनके विमान वायु पर प्रतिष्ठित हैं। इनका बाहुल्य २५०० योजन है । इनकी ऊंचाई ७०० योजन है। जो विमान आवलिका प्रविष्ट होते हैं, वे वृत्त (गोल), व्यस (त्रिकोण) या चतुरस्र ( चतुष्कोण) होते हैं, किन्तु ये विमान आवलिकाप्रविष्ट नहीं हैं, इसलिए इनका आकार नाना प्रकार का है । इनका वर्ण लाल, पीला और सफेद है । ये प्रकाश युक्त हैं। ये इष्ट गन्ध और इष्ट स्पर्श वाले हैं । सर्वरत्नमय हैं। इन विमानों में रहने वाले देव, समचतुरस्र संस्थान वाले और पद्म लेश्या वाले हैं । जीवाभिगम सूत्र के दूसरे वैमानिक उद्देशक में ब्रह्मलोक विमानवासी देवों के सम्बन्ध में जो कथन किया है, वह वक्तव्यता यहाँ कहनी चाहिए। सभी प्राण, भूत, जीव और सत्त्व, लोकान्तिक विमानों में पृथ्वीकाय, अकाय, तेउकाय, वायुकाय और वनस्पतिकाय एवं देव रूप से अनेक बार अथवा अनन्तबार उत्पन्न हो चुके हैं, किन्तु देवी रूप से उत्पन्न नहीं हुए हैं, क्योंकि लोकान्तिक विमानों में देवियाँ उत्पन्न नहीं होती है ।
लोकान्तिक विमानों से असंख्यात हजार योजन की दूरी पर लोक का अन्त है ।
॥ इति छठे शतक का पांचवां उद्देशक समाप्त ॥
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