Book Title: Bhagvati Sutra Part 02
Author(s): Ghevarchand Banthiya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 523
________________ १०४० भगवती सूत्र-श. ६ उ. ७ उपमेय काल भावार्थ-चार कोटाकोटि सागरोपम का एक 'सुषमसुषमा' आरा होता है। तीन कोटाकोटि सागरोपम का एक 'सुषमा' आरा होता है । दो कोटाकोटि सागरोपम का एक 'सुषमदुःषमा' आरा होता है । बयालीस हजार वर्ष कम एक कोटाकोटि सागरोपम का एक 'दुःषम-सुषमा' आरा होता है । इक्कीस हजार वर्ष का एक 'दुःषम' आरा होता है और इक्कीस हजार वर्ष का एक 'दुःषम-दुःषमा' आरा होता है । इसी प्रकार उत्सपिणी काल से इक्कीस हजार वर्ष का पहला दुःषमदुःषमा आरा होता है और इक्कीस हजार वर्ष का दूसरा दुःषम आरा होता है। बयालीस हजार वर्ष कम एक कोटाकोटि सागरोपम का तीसरा दुःषमसुषमा आरा होता है। दो कोटाकोटि सागरोपम का चौथा सुषमदुःषमा आरा होता है । तीन कोटाकोटि सागरोपम का पांचवां सुषमा आरा होता है । चार कोटाकोटि सागरोपम का छठा सुषमसुषमा आरा होता है । इस प्रकार बस कोटाकोटि सागरोपम का एक 'अवसर्पिणी काल' होता है और दस कोटाकोटि सागरोपम का एक 'उत्सपिणी काल' होता है। बीस कोटाकोटि सागरोपम का एक 'अबसपिणी उत्सपिणी काल चक्र' होता है। विवेचन-पहले प्रकरण में गणनीय काल का विवेचन किया गया है। अब इस प्रकरण में उपमेय काल का वर्णन करने के लिये परमाणु आदि का स्वरूप बतलाया जाता है। परमाणु से लेकर योजन तक का प्रमाण बतला कर फिर पल्यापम का स्वरूप बतलाया गया है। यहां जो पल्योपम का स्वरूप बतलाया गया है, वह व्यावहारिक अद्धा पल्योपम का स्वरूप समझना चाहिये । क्योंकि पल्योपम के तीन भेद कहे गये हैं । यथा-१ उद्धार पल्योपम, २ अद्धा पल्योपम और ३ क्षेत्र पल्योपम । १ उत्सेधांगुल परिमाण से एक योजन लम्बा, एक योजन चौड़ा और एक योजन गहरा गोलाकार कूप हो । उसमें देवकुरू उत्तरकुरू के युगलिया के मुण्डित मस्तक पर एक दिन के उगे हुए, दो दिन के उगे हुए, यावत् सात दिन के उगे हुए, करोड़ों बालानों से उस कप को ठूस ठूस कर इस प्रकार भरा जाय कि वे बालाग्र न आग से जल सकें और न हवा से उड़सकें। उनमें से प्रत्येक को एक एक समय में निकालते हुए जितने काल में वह कुओं सर्वथा खाली हो जाय, उस काल परिमाण को व्यावहारिक 'उद्धार पल्योपम' कहते हैं । यह पल्योपम संख्यात समय परिमाण होता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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