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भगवती सूत्र-श. ६ उ. ३ महाकर्म और अल्पक में
४ प्रश्न-से केणटेणं ?
४ उत्तर-गोयमा ! से जहा णामए वत्थस्स जल्लियस्स वा पंकियस्म वा मइल्लियस्स वा रइल्लियस्स वा आणुपुव्वीए परिकम्मिजमाणस्स सुद्धेणं वारिणा धोव्वेमाणरस सव्वओ पोग्गला भिज्जंति, जाव-परिणमंति, से तेणटेणं ।
कठिन शब्दार्थ-बझंति-बँधते हैं चिति-चय-संग्रह होता है, अणिद्वत्ताए अनिष्ट रूप में, अकंत-अप्पिय-असुभ-अमणुण्ण-अमणामत्ताए-अकान्न, अप्रिय, अशुभ, अमनोज्ञ, अमनामपने, अणिच्छियत्ताए-अनिच्छनीयपने, अभिज्झियत्ताए-जिसे प्राप्त करने की रुचि नहीं हो, अहत्ताए-नीचत्व प्राप्त, उड्डत्ताए-ऊध्वंत्व, अहयस्स-अक्षत, तंतुग्गयस्स-सांचे पर से उतरा हुआ, आणुपुटवीए -क्रमशः, परिभुज्जमाणस्स-भोगते हुए, अप्पाऽसवस्स-अल्प आश्रव वाला, भिज्जति - भेदित होते हैं, सया-सदा, समिय-निरन्तर, भुज्जो भुज्जो-बारम्बार, जल्लियस्स-मलीन, पंकियस्स-पंकयुक्त, मइल्लियस्स-मेल युक्त, रइल्लियरस-रज सहित, परिकम्मिज्जमाणस्स-जिसे शुद्ध करने का प्रयत्न किया जा रहा है।
भावार्थ- १ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या महाकर्म वाले, महाक्रिया वाले, महाआश्रव वाले और महावेदना वाले जीव के सर्वतः अर्थात् सभी ओर से और सभी प्रकार से पुद्गलों का बन्ध होता है ? सर्वतः पुद्गलों का चय होता है ? सर्वतः पुद्गलों का उपचय होता है ? सदा निरन्तर पुद्गलों का बन्ध होता है ? सदा निरन्तर पुद्गलों का चय होता है ? सदा निरन्तर पुद्गलों का उपचय होता है ? क्या सदा निरन्तर उसको आत्मा दुरूपपने, दुर्वर्गपने, दुगंधपने, दुःरसपने, दुःस्पर्शपने, अनिष्टपने, अकान्तपने, अप्रियपने, अशुभपने, अमनोज्ञपने, अमनामपने (मन से भी जिसका स्मरण न किया जा सके) अनीप्सितपने (अनिच्छितपने) अभिध्यितपने (जिस को प्राप्त करने के लिये लोभ भी न हो) जघन्यपने, अनज़पने, दुःखपने और असुखपने बारंबार परिणत होती है ?
१ उत्तर-हाँ, गौतम ! उपर्युक्त रूप से यावत् परिणमती है ।
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