Book Title: Bhagvati Sutra Part 02
Author(s): Ghevarchand Banthiya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 468
________________ भगवती सूत्र-स. ६ उ. ४ जीव-प्रदेश निरूपण और इसी प्रमाण में उद्वर्तते (मरते) हैं। . पूर्वोत्पन्न और उत्पद्यमान एकेंद्रिय जीव, बहुत होने से 'बहुत सप्रदेश और बहुत अप्रदेश'-ऐसा कहा जाता है । अतः इनमें भंग नहीं बनता है । जिस प्रकार नरयिक जीवों में तीन भंग कहे गये है, उसी प्रकार बेइन्द्रिय आदि से लेकर सिद्ध पर्यन्त जीवों में कथन करना चाहिये । क्योंकि इन सब में विरह का सम्भव होने से और इनकी उत्पत्ति एक, दो, तीन, चार आदि. रूप से होती है। २ आहारक द्वार-आहारक और अनाहारक शब्द से विशेषित जीवों का एक वचन आश्री एक दण्डक और बहुवचन आश्री एक दण्डक, इस प्रकार दो दण्डक कहने चाहिये । जो जीव विग्रह गति में अथवा केवली समुदधात में अनाहारक होकर फिर आहारकपने को प्राप्त करता है, तब आहारकत्व के प्रथम समय में वर्तता हुआ वह जीव 'अप्रदेश' कहलाता है और प्रथम समय के सिवाय दूसरे, तीसरे आदि समयों में वर्तता हुआ वह जीव, 'सप्रदेश' कहलाता है । इसलिये मूल में कहा गया है कि कदाचित् कोई सप्रदेश और कदाचित् कोई अप्रदेश होता है । इस प्रकार सभी आदि वाले (शुरू होने वाले) भावों में एक वचन में जान लेना चाहिये और अनादि वाले भावों में तो नियमा सप्रदेश होते हैं। बहुवचन वाले दण्डक में तो इस प्रकार कहना चाहिये कि वे सप्रदेश भी होते हैं और अप्रदेश भी होते हैं। क्योंकि आहारकपने में रहे हुए बहुत जीव होने से उनका सप्रदेशत्व है । तथा बहुत से जीवों को विग्रह गति के बाद तुरन्त ही प्रथम समय में आहारकपना संभव होने से उनका अप्रदेशत्व भी है । इस प्रकार आहारक जीवों में सप्रदेशत्व और अप्रदेशत्व ये दोनों पाये जाते हैं। इस प्रकार पृथ्वीकायिक आदि जीवों के लिये भी कहना चाहिये । नरयिकादि जीवों में तीन भंग कहने चाहिये । यथा-१ सभी सप्रदेश, अथवा २ बहुत सप्रदेश और एक अप्रदेश, अथवा ३ बहुत सप्रदेश और बहुत अप्रदेश । जीव और एकेन्द्रियों को छोड़कर उपर्युक्त तीन भंग कहने चाहिये । यहां (आहारक पद के विषय में) सिद्ध पद तो नहीं कहना चाहिये । क्योंकि सिद्ध तो अनाहारक ही होते हैं। जिस प्रकार आहारक पद के दो दण्डक कहे हैं, उसी प्रकार अनाहारक जीवों के विषय में भी एकवचन और बहुवचन की अपेक्षा दो दण्डक कहने चाहियों इनमें विग्रह गति समापन्न जीव, समुद्घात गत केवली, अयोगी केवली और सिद्ध, ये सर्व अनाहारक होते हैं । इसलिये ये सब जब अनाहारकत्व के प्रथम समय में वर्तते हैं, तो 'अप्रदेश' कहलाते हैं और जब दूसरे, तीसरे आदि समय में वर्तते हैं, तब ‘सप्रदेश' कहलाते हैं। बहुवचम की अपेक्षा दण्डक में यह विशेषता है कि जीव और एकेन्द्रिय को नहीं लेना चाहिये। क्योंकि जीव. पद में और एकेन्द्रिय पद में बहुत सप्रदेश और बहुत अप्रदेश' यह एक ही भंग पाया जाता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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