Book Title: Bhagvati Sutra Part 02
Author(s): Ghevarchand Banthiya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

Previous | Next

Page 471
________________ भगवती सूत्र - श. ६ उ. ४ जीव- प्रदेश निरूपण में जीवादि पदों में तीन भंग कहने चाहिये । पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या के प्रकरण में पञ्चेंद्रिय तिर्यञ्च, मनुष्य और वैमानिक देव ही कहने चाहिये। क्योंकि इनके सिवाय दूसरे जीवों में ये दो लेश्याएँ नहीं होती । अलेश्य ( लेश्या रहित ) जीव के एक वचन और बहुवचन से दो दण्डकों में जीव, मनुष्य और सिद्ध पद का ही कथन करना चाहिये । क्योंकि दूसरे जीवों में अलेश्यत्व सम्भावित नहीं है । इनमें जीव और सिद्ध में तीन भंग कहने चाहिये । मनुष्य में छह भंग कहने चाहिये । क्योंकि अलेश्यत्व प्रतिपन्न ( प्राप्त किये हुए) और प्रतिपद्यमान ( प्राप्त करते हुए) एकादि मनुष्यों का सम्भव होने से सप्रदेशत्व में और अप्रदेशत्व में एक वचन और बहुवचन का सम्भव है । ९८८ ६ दृष्टि द्वार - सम्यग्दृष्टि के दो दण्डकों में, सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के प्रथम समय में अप्रदेशपना है और पीछे के दूसरे तीसरे आदि समयों में सप्रदेशपना है । इनमें दूसरे दण्ड में जीवादि पदों में पूर्वोक्त तीन भंग जानने चाहिये । विकलेन्द्रियों में छह भंग जानने चाहिये। क्योंकि विकलेन्द्रियों में पूर्वोत्पन्न और उत्पद्यमान एकादि सास्वादन सम्यग्दृष्टि जीव पाये जाते हैं । इसलिये सप्रदेशत्व और अप्रदेशत्व में एकत्व और बहुत्व का सम्भव है । इन सम्यग्दृष्टि द्वार में एकेंद्रिय पदों का कथन नहीं करना चाहिये। क्योंकि उनमें सम्यगदर्शन नहीं होता है । मिथ्यादृष्टि के एकवचन और बहुवचन से दो दण्डक कहने चाहिये । उनमें से दूसरे दण्डक में जीवादि पदों में तीन भंग कहने चाहिये, क्योंकि मिथ्यात्व प्रतिपन्न ( प्राप्त ) जीव बहुत हैं और सम्यक्त्व से भ्रष्ट होने के बाद मिथ्यात्व को प्रतिपद्यमान एकादि जीव सम्भवित हैं । इसलिये तीन भंग होते हैं । यहाँ मिथ्यादृष्टि के प्रकरण में एकेंद्रिय जीवों में 'बहुत सप्रदेश और बहुत अप्रदेश'- यह एक ही भंग पाया जाता है। क्योंकि एकेंद्रिय जीवों में अवस्थित और उत्पद्यमान बहुत होते हैं । इस प्रकरण में सिद्धों का कथन नहीं करना चाहिये, क्योंकि उनमें मिथ्यात्व नहीं होता है । सम्यग्मिथ्यादृष्टि (मिश्रदृष्टि ) जीवों के एकवचन और बहुवचन, ये दो दण्डक कहने चाहिये। उनमें से बहुवचन के दण्डक में छह भंग होते हैं, क्योंकि सम्यग्मिथ्यादृष्टिपन को प्राप्त और प्रतिपद्यमान एकादि जीव भी पाये जाते हैं । इस सम्यग्मिथ्या द्वार में एकेंद्रिय विकलेन्द्रिय और सिद्ध जीवों का कथन नहीं करना चाहिये । क्योंकि उनमें सम्यग्मिथ्यादृष्टिपन असम्भव है । ७ संयत द्वार - संयतों में अर्थात् संयत शब्द से विशेषित जीवों में तीन भंग कहने चाहिये । क्योंकि संयम को प्राप्त बहुत जीव होते हैं और संयम को प्रतिपद्यमान एकाद जीव होते हैं । इसलिये तीन भंग घटित होते हैं। इस संयत द्वार में जीव पद और मनुष्य पद Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560