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भगवती सूत्र - ६ उ ३ कर्म और स्थिति
जबतक कम का उदय होता है, तबतक के काल का अर्थात् कम का बध और कर्म का उदय इन दोनों के बीच के अन्तर काल को 'अवाधा-काळ' कहते हैं। पूर्वोक्त स्वरूप वाले अबाधा काल से कम 'कर्म स्थिति' ( कर्म का वंदन काल ) कहलाती है । अर्थात् जिस कर्म का वध स्थिति-काल तीस कोडाकाडी मागरम बतलाया गया है, उस में से तीन हजार वर्ष बाधा काल कम कर देने पर गप कर्म स्थिति-काळ ( कर्म का वंदन काल-कर्म निषेककाल ) कहलाता है। कर्म भोगने के लिये कर्म दलिकों की एक प्रकार की रचना को कम निषेक' कहते हैं। प्रथम समय में बहुत अधिक कर्म निषेक होता है। दूसरे समय में विशेष हान और तीसरे समय में विशेष हीन, इस प्रकार जितनी उत्कृष्ट स्थिति वाले कर्म दलिक होते है, उतना ही विशेष होन कर्म निषेक होता जाता है। इस का तात्पर्य यह है कि जैसे बांधा हुआ भी ज्ञानावरणीय कर्म तीन हजार वर्ष तक अवेदय ( नहीं वेदा जाने वाला) रहता है। इसलिये तीन हजार वर्ष कम उस का अनुभव-काल होता है । अर्थात् ज्ञानावरणीय कर्म का अनुभव काल तीन हजार वर्ष कम तीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम होता है ।
इस विषय में किन्हीं आचार्यों का ऐसा कथन है कि ज्ञानावरणीय कर्म का तीन हजार वर्ष का अबाधा काल है और तीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम का 'बाधा-काल' है । ये दोनों काल मिलकर कर्म स्थिति-काल कहलाता है। इसमें से अबाधा-काल को निकाल देने पर बाकी जितना काल बचता है, वह 'कर्म निषेक काल' कहलाता है। इसी प्रकार दूसरे कर्मों के विषय में भी अबाधा-काल का कथन करना चाहिये । विशेषता यह है कि आयुष्य कर्म में तेतीस -सागरोपम का निषेक काल है और पूर्व कोटिका त्रिभाग काल 'अबाधा काल' हैं । किन्तु आगम पाठ को देखते हुए यह मान्यता उचित प्रतीत नहीं होती है, क्योंकि आगम में ज्ञानावरणीय आदि कर्मों का बंधस्थिति तीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम आदि ही बताई गई है। अधिक नहीं । एवं आयुष्य कर्म के भी अबाधा काल न्यून करना नहीं बताया है, वेदनीय कर्म का जघन्य काल दो समय का है । अर्थात् जिस वेदनीय कर्म के बंध में कषाय कारण नहीं होता, किन्तु शरीरादि योग ही निमित्त होते हैं, उस वेदनीय कर्म के बंध की अपेक्षा वेदनीय कर्म दो समय की स्थिति वाला है । प्रथम समय में बंधता है और दूसरे समय में वेदा जाता है । वेदनीय कर्म की जो जघन्य स्थिति बारह मुहूर्त तथा नाम और गोत्र की जवन्य स्थिति आठ मुहूर्त बतलाई गई है, वह सकषाय बंध की स्थिति की अपेक्षा समझनी चाहिये ।
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