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भगवती सूत्र - श. ५ उ. ९ पाश्र्वापत्य स्थविर श्रीमहावीर
आधेय अनन्त होने से बड़ा है । इसलिये छोटे आधार में बड़ा आधेय किस प्रकार रह सकता है ?
दूसरा प्रश्न यह हैं कि जब रात्रि दिवस अनन्त हैं, तो 'परित' कैसे हो सकते हैं ? यह परस्पर विरोध है ।
समाधान - उपरोक्त दोनों शंकाओं का समाधान यह है कि जैसे- एक मकान में हजारों दीपकों की प्रभा समा सकती है, उसी तरह तथाविध स्वरूप होने से असंख्य प्रदेश रूप लोक में भी अनन्त जीव रहते हैं। वे जीव, एक ही जगह, एक ही समय आदि काल में अनन्त उत्पन्न होते हैं और नष्ट होते हैं । वह समयादि काल साधारण शरीर में रहने वाले अनन्त जीवों में से प्रत्येक जीव में वर्तता है और इसी तरह प्रत्येक शरीर में रहने वाले परित्त ( नियत परिमित ) जीवों में से प्रत्येक जीव में वर्तता है । क्योंकि वह समयादि काल जीवों की स्थिति रूप पर्याय रूप है । इस प्रकार काल अनन्त भी होता है और परित्त भी होता है । इस प्रकार असंख्येय लोक में भी रात्रि दिवस अनन्त हैं और परित्त भी हैं । इसी प्रकार तीनों काल में हो सकता है। यही बात स्थविरों द्वारा सम्मत भगवान् पार्श्वनाथ
के मत द्वारा बतलाई गई है ।
सूत्र में भगवान् पार्श्वनाथ के लिये 'पुरुषादानीय' विशेषण दिया गया है। जिस का अर्थ है-पुरुषों में आदेय - माननीय - ग्राह्य |
लोक का कथन करते हुए मूलपाठ में जो विशेषण दिये गये हैं, उनका अर्थ इस प्रकार है - लोक शाश्वत है, अनादि है, अर्थात् उसकी कभी भी उत्पत्ति नहीं हुई, वह स्थिर है । अनादि होते हुए भी लोक अनन्त है, उसका कभी अन्त नहीं होता । प्रदेशों की अपेक्षा लोक 'परित (असंख्येय ) है । वह अलोक से परिवृत है । अर्थात् उसके चारों तरफ अलोक है । अतः वह अलोक से घिरा हुआ है । नीचे विस्तीर्ण है, क्योंकि नीचे उसका विस्तार, सात रज्जु परिमाण है । मध्य में वह संक्षिप्त है । अर्थात् एक रज्जु परिमाण विस्तीर्ण है । ऊपर विशाल है | अर्थात् ब्रह्मलोक नामक पांचवें देवलोक के पास, पांच रज्जु विस्तीर्ण है । इसी बात को उपमा द्वारा कहा गया है। ऊपरी संकीर्ण और नीचे विस्तृत होने से . : नीचे पल्यङ्क के आकार है। बीच में पतला होने से मध्य में लोक का आकार वज्र के समान है । ऊपर ऊर्ध्वं मृदंग के आकार है । अर्थात् दो शराव ( सकोरा ) के सम्पुट सरीखा है ।
ऐसे लोक में अनन्त जीवघन उत्पन्न होकर नष्ट होते हैं और परित्त जीवघन भी उत्पन्न होकर नष्ट होते हैं । इसका आशय यह है कि परिमाण से अनन्त, अथवा जीव सन्तति की अपेक्षा अनन्त । क्योंकि जीव सन्तति का कभी अन्त नहीं होता। इसलिये सूक्ष्मादि साधारण
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