________________
भगवती सूत्र-श. ५ उ. ६ अन्यतीर्थिक का मिथ्यावाद
८५७
दुरहियासे।
कठिन शब्दार्थ-बहुसमाइण्णे-बहुत भरा हुआ, एगत्तं-एकत्व- एकपना, पुहुत्तं-पृथक्त्व-बहुतपना ।।
भावार्थ--१२ प्रश्न-हे भगवन् ! अन्यतीथिक इस प्रकार कहते हैं यावत् प्ररूपणा करते हैं कि युवती युवक के दृष्टान्त से अथवा आरायुक्त चक्र की नाभि के दृष्टान्त से यावत् चार सौ, पांच सौ योजन तक यह मनुष्य लोक, मनुष्यों से ठसाठस भरा हुआ है, हे भगवन् ! यह किस तरह है ?
१२ उत्तर-हे गौतम ! अन्यतीथियों का उपरोक्त कथन मिथ्या है। हे गौतम ! मैं इस प्रकार कहता हूँ यावत् प्ररूपणा करता हूं-कि चार सौ, पांच : सौ योजन तक नरक लोक, नरयिक जीवों से ठसाठस भरा हुआ है।
१३ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या नैरयिक जीव, एकत्व ( एक रूप) को विकुर्वणा करने में समर्थ हैं ? अथवा बहुत्व (बहुत रूपों) की विकुर्वणा करने में समर्थ हैं ?
१३ उत्तर-इस विषय में जिस प्रकार जीवाभिगम सूत्र में आलापक कहा है, उसी तरह 'दुरहियास' शब्द तक आलापक कहना चाहिये ।
विवेचन–सम्यक् प्ररूपणा का प्रकरण होने से मिथ्या प्ररूपणा के खण्डन पूर्वक सम्यक् प्ररूपणा बतलाई जाती है।
अन्यतीथियों का उपरोक्त कथन विभंगज्ञान पूर्वक होने से असत्य है । भगवान् के वचन केवलज्ञान पूर्वक होने से सत्य है ।
नैरयिकों की विकुर्वणा के सम्बन्ध में जीवाभिगम सूत्र का अतिदेश किया गया है। वह इस प्रकार है-नैरयिक जीव एकपने की विकुर्वणा करने में भी समर्थ हैं और बहुपने की विकुर्वणा करने में भी समर्थ है। एकपने की विकुर्वणा करते हुए वे एक बड़े मुद्गर रूप अथवा मुसुंढि रूप इत्यादि शस्त्र की विकुर्वणा करते हैं और बहुपने की विकुर्वणा करते हुए वे बहुत से मुद्गर रूप या मुसुंढि रूप इत्यादि बहुत से शस्त्रों की विकुर्वणा करते हैं । वे सब संख्येय होते हैं, किन्तु असंख्येय नहीं। इस प्रकार संबद्ध शरीरों की विकुर्वणा करते हैं। विकुर्वणा करके एक दूसरे के शरीर को अभिघात पहुंचाते हुए वे वेदना की उदीरणा करते हैं । वह वेदना उज्ज्वल (सर्वथा सुख रहित) विपुल (सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त) प्रगाढ़
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org