________________
भगवती सूत्र - श. ५ उ. ७ नैरयिक आरंभी परिग्रही
तरह 'अवगाहना स्थानायु 'और' भावस्थानायु' के विषय में भी समझ लेना चाहिये। किंतु इतनी विशेषता है कि परिमित स्थान में पुद्गलों का रहना 'अवगाहनास्थानायु' कहलाता है । और पुद्गलों का श्यामत्वादि धर्म 'भाव स्थानायु' कहलाता है ।
शंका- अवगाहना और क्षेत्र में ऐसा क्या भेद है, जिससे यहाँ उनका पृथक् पृथक् कथन किया गया है ।
८८४
समाधान - पुद्गलों से अवगाढ़ ( व्याप्त) स्थान 'क्षेत्र' कहलाता है । विवक्षित क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में भी पुद्गलों का परिमित क्षेत्र में रहना 'अवगाहना' कहलाती है । अर्थात् पुद्गलों का आधार स्थलं रूप एक प्रकार का आकार अवगाहना कहलाती हैं । और पुद्गलं जहां रहता है, वह 'क्षेत्र' कहलाता हैं ।
क्षेत्र स्थानायु, अवगाहनास्थानायु, द्रव्यस्थानायु और भाव स्थानायु - इन सब में क्षेत्र स्थानाय सब से थोड़ा है और बाकी के तीन असंख्य गुणा है । क्योंकि क्षेत्र अमूर्तिक होने से उसके साथ पुद्गलों को बंध का कारण 'स्निग्धत्व' न होने से पुद्गलों का क्षेत्रावस्थान काल सब से थोड़ा हैं। एक क्षेत्र में रहा हुआ पुद्गल दूसरे क्षेत्र में जाने पर भी उसकी वही अवगाहना रहती है । इसलिये क्षेत्र स्थानायु की अपेक्षा अवगाहना स्थानायु असंख्य गुण है । अवगाहना की निवृत्ति हो जाने पर भी द्रव्य लम्बे काल तक रहता है । इसलिये अवगाहनास्थानायु की अपेक्षा द्रव्य स्थानायु असंख्य गुणा है । द्रव्य की निवृत्ति होने पर भी गुणों का अवस्थान रहता है । अर्थात् द्रव्य में गुणों का बाहुल्य होने से सब गुणों का नाश नहीं होता, तथा द्रव्य का अन्यत्व होने पर भी बहुत से गुणों की स्थिति रहती है । इस लिये द्रव्यस्थानायु की अपेक्षा भावस्थानायु असंख्य गुणा है ।
नैरयिक आरंभी परिग्रही
२८ प्रश्न - रइया णं भंते! किं सारंभा सपरिग्गहा, उदाहु अणारंभा अपरिग्गहा ?
२८ उत्तर - गोयमा ! णेरइया सारंभा सपरिग्गहा, णो अणा
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org