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भगवती सूत्र - श. ५ उ. ६ आधाकर्मादि आहार का फल
वहता भव से णं तस्स जाव - अस्थि आराहणा ?
"
१६ उत्तर - जाव - रायपिंडं ।
कठिन शब्दार्थ - आहाकम्मं-आधाकर्म, अणवज्जे- अनवद्य-निष्पाप, पहारेत्ता- समझता धारण करता हुआ, अणालोइयपडिक्कते - बिना आलोचना प्रायश्चित किये, एएणंगमेणं - इसी प्रकार, कीयगड़ - खरादा हुआ, ठवियं स्थापित, रइयगं रचा हुआ, कंतारभत्तंजंगल में निर्वाह के लिये बनाया हुआ, दुब्भिक्खमत्तं - दुर्भिक्ष में देने के लिए बनाया हुआ भोजन, वद्दलियाभत्तं - वर्षा के समय निर्वाह के लिए दिया हुआ आहार, गिलाणभत्तं - रोगी के लिए बनाया हुआ भोजन, सेज्जायपिडं शय्या स्थानदाता के घर का आहारादि अणुपदावइत्ता - परस्पर दिलाता हुआ ।
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- इस
है'- प्रकार जो साधु मन विषयक आलोचना और प्रति
भावार्थ- 'आधाकर्म अनवदय-निष्पाप में समझता हो, वह यदि आधाकर्म स्थान क्रमण किये बिना ही काल कर जाय, तो उसके आराधना नहीं होती । और आधाकर्म- स्थान विषयक आलोचना और प्रतिक्रमण करके काल करे, तो उसके आराधना होती है । इसी तरह क्रीतकृत ( साधु के लिये खरीद कर लाया हुआ), स्थापित ( साधु के लिये स्थापित करके रखा हुआ ) रचित ( साधु के लिये बिखरे हुए भूके लड्डू रूप में बांधा हुआ) कान्तारभक्त ( जंगल में भिक्षुओं - भिखारी लोगों के निर्वाह के लिये तैयार किया हुआ आहार आदि ) दुर्भिक्ष भक्त ( goकाल के समय भिखारी लोगों के निर्वाह के लिये तैयार किया हुआ आहार आदि) वार्दलिकाभक्त ( दुर्दिन अर्थात् वर्षा के समय भिखारियों के लिये तैयार किया हुआ आहार आदि) ग्लानभक्त ( रोगियों के लिये तैयार किया हुआ आहारादि ) शय्यातरपिण्ड ( जिस मकान में उतरे हैं, उस गृहस्थ के घर से आहार आदि लेना) राजपिण्ड ( राजा के लिये तैयार किया गया, जिसका विभाग दूसरों को मिलता हो वह आहार आदि लेना) इन सब प्रकार के आहार आदि के विषय में जैसा आधाकर्म के सम्बन्ध में कहा है, वैसा ही जान लेना चाहिये । १४ प्रश्न - " आधाकर्म आहार आदि अनवदय-निष्पाप है" -
- इस प्रकार
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