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भगवती सूत्र-श. ३ उ. ७ लोकपाल वैश्रमण देव
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पहेसु वा, णयरणिद्धमणेसु वा, सुसाण-गिरि-कंदर-संति-सेलोचट्ठाणभवणगिहेसु सण्णिक्खित्ताई चिटुंति; ण ताई सकस्स देविंदस्स देवरण्णो वेसमणस्स महारण्णो अण्णायाई, अदिट्ठाइं; असुयाइं, अस्सु(मु)याई, अविण्णायाइं; तेसि वा वेसमणकाइयाणं देवाणं ।
____ कठिन शब्दार्थ-अयागरा -- लोह की खान, तउयागरा-रांगा-कलई की खान, णिहाणाई--निधान, अप्पग्घा-सस्ताई, महग्घा--महँगाई, सन्निहि--संग्रह-संचय किया हुआ, निहि--निधि, चिरपोराणाई-बहुत समय के पुराने, पहीणसामियाइं-जिनके स्वामी नष्ट हो चुके हों. उच्छण्णसामियाई-जिनके स्वामी समाप्त हो चुके हो, णयरणिद्धमणेसु-नगर की गटरों में, सुसाण - श्मशान, गिरि–पर्वत, कंदर-गुफा, संति-शांतिगृह ।
भावार्थ-यथा--वैश्रमण कायिक, वैश्रमणदेव कायिक, सुवर्णकुमार, सुवर्णकुमारियाँ, द्वीपकुमार, द्वीपकुमारियाँ, दिक्कुमार, दिक्कुमारियां, वाणव्यन्तर, वाणव्यन्तरदेवियां, तथा इसी प्रकार वे सब देव जो उसकी भक्ति पक्ष और अधीनता रखते है, वे सब उसकी आज्ञा आदि में रहते हैं। इस जम्बूद्वीप के मेरु पर्वत से दक्षिण में जो ये कार्य होते हैं । यथा-लोह की खाने, रांगा की खानें, ताम्बा को खाने, शीशा की खाने, हिरण्य (चांदी) सुवर्ण रत्न और वन को खाने, वसुधारा, हिरण्य, सुवर्ण, रत्न, वज्र, गहना, पत्र, पुष्प, फल, बीज, माला, वर्ण, चूर्ण, गन्ध और वस्त्र इन सब की वर्षा । तथा कम या अधिक हिरण्य, सुवर्ण, रत्न, वज्र, आभरण, पत्र, पुष्प, फल, बीज, माल्य, वर्ण, चूर्ण, गन्ध, वस्त्र, भाजन और क्षीर की वृष्टि, सुकाल, दुष्काल, अल्पमूल्य (सस्ता), महामूल्य (महंगा), भिक्षा की समृद्धि, भिक्षा की हानि, खरीदना, बेचना, सन्निधि (घी गुडादि का संचय), सन्निचय (अनाज का संचय), निधियां, निधान चिरपुरातन (बहुत पुराने) जिनके स्वामी नष्ट हो गये हैं ऐसे खजाने, जिनकी सार संभाल करने वाले नहीं हैं ऐसे खजाने, प्रहोण मार्ग और नष्ट गोत्र वाले खजाने, स्वामी रहित खजाने, जिनके स्वामियों के नाम और गोत्र तथा घर
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